पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विपयप्रवेश । २५ विमूढ़ हो कर भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में गया । तब भगवान् ने उसे गीता का उपदेश दे कर उसके चंचन चित्त को स्थिर और शान्त कर दिया। इसका फल यह हुआ कि जो अर्जुन पहले भीष्म आदि गुरुजनों की हत्या के भय के कारण युद्ध से पराङ्मुख हो रहा था, वही अब गीता का उपदेश सुन कर अपना यथोचित कर्तव्य समझ गया और अपनी स्वतंत्र इच्छा से युद्ध के लिये तत्पर हो गया। यदि हमें गीता के उपदेश का रहस्य जानना है तो उपक्रमोपसंहार और परिणाम को अवश्य ध्यान में रखना पडेगा। भक्ति से मोन कैसे मिलता है ? घमज्ञान या पाताल योग ले मोक्ष की सिद्धि कैसे होती है? इत्यादि, केवल निवृत्ति मार्ग या कर्म- त्यागरूप संन्यास-धर्म-संबंधी प्रश्नों की चर्चा करने का कुछ उद्देश नहीं था। भगवान् श्रीकृष्ण का यह उद्देश नहीं था कि अर्जुन संन्यास-दीक्षा ले कर और वैरागी बन कर भीख मांगता फिरे, या लंगोटी लगा कर और नीम के पत्ते खाकर नृत्युपर्यन्त हिमालय में योगाभ्यास साधता रहे। अथवा भगवान का यह भी उद्देश नहीं था कि अर्जुन धनुष-बाण को फेक दे और हाथ में वीणा तया मृदंग ले फर कुरुक्षेत्र की धर्मभूमि में उपस्थित भारतीय ज्ञानसमाज के सामने, भगव- नाम का उच्चारण करता हुआ, मसाला के समान और एक बार अपना नाच दिखावे । अब तो अज्ञातवास पूरा हो गया था और अर्जुन को कुरुक्षेत्र में खड़े हो कर और ही प्रकार का नाच नाचना था ।गीता कस्त कहते स्थान-स्थान पर भगवान् ने अनेक प्रकार के अनेक कारण बतलाये हैं। और अन्त में अनुमान- दर्शक अत्यंत महत्व के तस्मात् ' ('इसलिये') पद का उपयोग करके, अर्जुन को यही निश्चितार्थक कर्म-विषयक उपदेश दिया है कि " तहमायुध्यत्व भारत,"- इसलिये है अर्जुन ! तू युद्ध कर (गी. २. १८); " तस्मादुत्तिष्ट कौंतेय युद्धाय कृतनिश्चयः - इसलिये है कौतेय अर्जुन ! त, युद्ध का निश्चय करके, उठ (गी. २. ३७); "तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर"-इसलिये तू मोह छोड़ कर अपना कर्तव्य फर्म कर (गी. ३. १६); "कुरु कमैव तस्मात् त्वं "-इस लिये तू कर्म ही कर (गी. ४. १५); "मामनुस्मर युध्य च "--इसलिये मेरा स्मरण कर और लड़ (गी. ८.७); " करने करानवाला सब कुछ मैं ही हूँ, तू केवल निमित्त है, इसलिये युद्ध करके शत्रुओं को जीत " (गी. ११.३३) "शास्त्रोक्त कर्तव्य करना तुझे उचित है " (गी. १६. २४ ) । अठारहवें अध्याय के उपसंहार में भगवान ने अपना निश्चित्त और उत्तम मत और भी एक बार प्रगट किया है। इन सब कर्मों को करना ही चाहिये "(गी. १८.६)। और, अंत में (गी. १८. ७२), भगवान् ने अर्जुन से प्रश्न किया है कि हे अर्जुन ! तेरा यशान-मोह अभी तक नष्ट हुना कि नहीं ? " इस पर अर्जुन ने संतोषजनक उत्तर दिया:- नष्टो गोदः स्मृतिर्लन्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ।। गी.२,४