पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६२३

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५८४ गीतारहत्य अथवा फर्मयोग-परिशिष्ट। परन्तु यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उसका वर्णन प्राचीन ग्रंषों के माधार को छोड़ कर नहीं किया गया है। क्योंकि, यह संभव नहीं है कि, कोई भी वाद ग्रंथकार स्वयं अपने धर्मपंय के तत्वों को बतलाते समय दिना किसी कारगा के पर- धर्मियों का इस प्रकार उल्लेख कर दे। इसलिये स्वयं बौद्ध ग्रंथकारों के द्वारा, इस विषय में, श्रीकृष्ण के नाम का उल्लेख किया जाना बड़े महत्व का है। क्योंकि मग- वद्गीता के अतिरिक श्रीकृष्णौक दूसरा प्रवृत्ति प्रधान भक्तिप्रन्य वैदिक धर्म में है ही नहीं; अतएव इससे यहवात पूर्णतया सिद्ध हो जाती है कि महायान पन्य के अस्तित्व में आने से पहले हीन केवल मागवतधर्म किन्तु भागवतधर्म-विषयक श्रीकृष्णोक ग्रन्थ अर्यात् भगवद्गीता भी उस समय प्रचलित थी; और ढास्टर केन भी इसी मत का समर्थन करते हैं। जब गीता का अस्तित्व बुद्धधर्मी महायान पन्य से पहले का निश्चित हो गया, तब अनुमान किया जा सकता है कि उसके साथ महामारत भी रहा होगा । बौद्धग्रंथों में कहा गया है कि युद्ध की मृत्यु के पश्चात् शीघ्र ही उनके मतों का संग्रह कर लिया गया; परन्तु इससे वर्तमान समय में पाये जानेवाले अत्यन्त प्राचीन ग्रंथों का मी उसी समय में रचा जाना सिद्ध नहीं होता। महापरि- निव्याणसुच को वर्तमान बौद्ध प्रन्यों में प्राचीन मानते हैं। परन्तु उसमें पाटलि- पुत्र शहर के विषय में जो उल्लेख है, उससे प्रोफेसर निहसदेविड्स ने दिखलाया है कि यह ग्रन्थ बुद्ध का निर्माण हो चुकने पर कम से कम सौ वर्ष पहले तैयार न किया गया होगा। और युद्ध के अनन्तर सौ वर्ष बीतने पर, बौदधर्मीय मितुओं की जो दूसरी परिषद् हुई थी, इसका वर्णन विनयपिटका में बुलवा अन्य के अन्त में है। इससे विदित होता है कि ला द्वीप के, पाली भाषा में लिखे हुए, विनयपिटकादि प्राचीन यौद्धमन्य इस परिषद् के हो चुकने पर रचे गये हैं । इस विषय में बौद्ध ग्रन्थकारों ही ने कहा है कि अशोक के पुत्र महेन्द्र ने ईला की सदी से लगमग २४१ वर्ष पहले जब सिंहलद्वीप में चौधर्म का प्रचार करना प्रारम्भ किया, तब ये अन्य मी वहाँ पहुँचाये गये और फिर कोई डेढ़ सौ वर्ष के बाद ये वहाँ पहले पहल पुस्तक के आकार में लिखे गये । यदि मान लें कि (Nagarjana ) was a pupil of the Brahmana Rabulabhadra, who himself was a llahayanist. This Brahmana was much indebted to the sage Krishna and still more to Ganesha. This quassimo historical notice, reduced to its less allegorical expression, means that Mahaganism is much indebted to the Bhagavadgita and more sven to Shiraism , " जान पड़ता है कि डा. के गगेश' शन्द मे शैव पंथ सम- झते हैं । डा. केन ने प्राच्यधर्मपुस्तकमाला में सदमे पुंडरीक ग्रंथ का अनुवाद किया है और उनकी प्रस्तावना में इसी मत का प्रतिपादन किया है (S. B. E. VOL. XXI. Intro. pp. -xvü).

  • See S. B.E. XI. Intro. PP XT-X* and

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