पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६२९

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । है, कि बुद्ध को मार का डर दिखला कर मोह में फंसाने का प्रयत्न किया गया था और उस समय बुद्ध १६ दिन (सात सप्ताह) तक निराहार रहा था। इसी प्रकार पूर्ण श्रद्धा के प्रमाव से पानी पर चलना, मुख तथा शरीर की क्रान्ति को एकदम सूर्य- सहश बना लेना, अथवा शरणागत चोरों तथा वेश्याओं को मी सहवि देना, इत्यादि बातें बुद्ध और ईसा, दोनों के चरित्रों में एक ही सी मिलती है और ईसा के जो ऐसे मुख्य मुख्य नैतिक उपदेश हैं, कि "तू अपने पड़ोसियों तथा शत्रुओं पर भी प्रेम कर," वे भी ईसा से पहले ही कहीं कहीं भूल बुद्धधर्म में बिलकुल अक्षरशः आ चुके हैं। उपर बतला ही आये हैं, कि भक्ति का तत्व मूल वुद्धधर्म में नहीं था, परन्तु वह भी आगे चल कर अर्थात् कम से कम ईसा से दो-तीन सदियों से पहले ही, महायान बौद्ध-पंथ में भगवद्गीता से लिया जा चुका या । मि० भार्थर लिली ने अपनी पुस्तक में आधारपूर्वक स्पष्ट करके दिखला दिया है कि यह साम्य केवल इतनी ही बातों में नहीं है, बल्कि इसके सिवा बौद्ध तयाईसाई धर्म की अन्यान्य सैकड़ों छोटी-मोटी बातों में उक्त प्रकार का ही साम्य वर्तमान है।यही क्यों, सूली पर चढ़ा कर ईसा का वध किया गया था, इसलिये ईसाई जिस सूली के चिन्ह को पूज्य तथा पवित्र मानते हैं, उसी स्ली के चिन्ह को 'स्वस्तिक' (साथिया) के रूप में, वैदिक तथा बौद्ध धर्मवाले, ईसा के सैकड़ों वर्ष पहले से ही शुभदायक चिन्ह मानते थे और प्राचीन शोधकों ने यह निश्चय किया है कि, मिश्रादि,पृथ्वी के पुरातन खंडों के देशों, ही में नहीं किन्तु कोलंबस से कुछ शतक पहले अमेरिका के पेरू तथा मेक्सिको देश में भी स्वस्तिक चिन्ह शुभदायक माना जाता था। इससे यह अनुमान करना पड़ता है कि ईसा के पहले ही सब लोगों को स्वस्तिक चिन्ह पूज्य हो चुका था, उसी का उपयोग आगे चल कर ईसा के भक्तों ने एक विशेष रीति से कर लिया है। बाद भिन्नु और प्राचीन ईसाई धर्मोपदेशकों की, विशेषतः पुराने पादड़ियों की, पोशाक और धर्म-विधि में भी कहीं अधिक समता पाई जाती है। उदाहरणार्थ, 'यतिस्ना' अर्थात् स्नान के पश्चात् दीवा देने की विधि भी ईसा से पहले ही प्रचलित थी। अब सिद्ध हो चुका है कि दूर दूर के देशों में धर्मोपदेशक भेज कर धर्म-प्रसार करने की पद्धति, ईसाई धर्मोपदेशकों से पहले ही, बौद्ध भिक्षुओं को पूर्णतया स्वीकृत हो चुकी थी। किसी भी विचारवान् मनुष्य के मन में यह प्रश्न होना बिलकुल ही साहनिक है कि वुद और ईसा के चरित्रों में, उनके नैतिक उपदेशों में, और उनके धर्मों की धार्मिक विधियों तक में, जो यह अद्भुत और व्यापक समता पाई जाती है इसका क्या कारण है ? बौदधर्म ग्रंथों का अध्ययन करने से जन पहले पहन

  • See The Secret of the Pucific, bs C. Reginald Enock 1912,

PP. 248-252. इस विषय पर मि, भार्थर लिली ने Buddhism in Christendom नाम