पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६३२

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भाग ७-गीता और ईसाइयों की वाइवल । श्रर ने अपने एक निबंध में कहा है कि इसाई तपा बौद्धधर्म सर्वथा एक से नहीं

  • यद्यपि उन दोनों की कुछ बातों में समता हो तथापि अन्य बातों में वैषम्य भी

योढ़ा नहीं है, और इसी कारण बौद्धधर्म से ईसाईधर्म का उत्पन्न होना नहीं माना जा सकता । परन्तु यह कथन विषय से बाहर का है इसलिये इसमें कुछ भी जान नहीं है। यह कोई भी नहीं कहता कि ईसाई तथा बौद्धधर्म सर्वथा एक से ही हैं, क्योंकि यदि ऐसा होता तो ये दोनों धर्म पृथक् पृथक् न माने गये होते। मुख्य प्रश्न तो यह है कि जब मूल में यहूदीधर्म केवल कर्ममय है, तब उसमें सुधार के रूप से संन्यास-युक्त भक्तिमार्ग के प्रतिपादक ईसाईधर्म की उत्पत्ति होने के लिये कारण क्या हुआ होगा। और ईसा की अपेक्षा बौद्धधर्म सचमुच प्राचीन है। उसके इतिहास पर ध्यान देने से यह कथन ऐतिहासिक दृष्टि से भी संभव नहीं प्रतीत होता कि, संन्यास-प्रधान भक्ति और नीति के तत्वों को ईसा ने स्वतंत रीति से हूँढ़ निकाला हो । बाइबल में इस यात का कहीं भी वर्णन नहीं मिलता कि, ईसा अपनी आयु के बारहवें वर्ष से ले कर तीस वर्ष की आयु तक क्या करता था और कहाँ था । इससे प्रगट है कि उसने अपना यह समय ज्ञानार्जन, धर्मचिंतन और प्रवास में बिताया होगा । अतएव विश्वासपूर्वक कौन कह सकता है कि आयु के इस भाग में उसका बौद्ध मिशुओं से प्रत्यक्ष या पर्याय से कुछ भी सम्बन्ध हुआ ही न होगा ? क्योंकि, उस समय बौद्ध यतियों का दौरदौरा यूनान तक हो चुका था। नेपाल के एक, बौद्ध मठ के, ग्रन्थ में स्पष्ट वर्णन है कि उस समय ईसा हिन्दुस्थान में पाया था और वहाँ उसे बौद्धधर्म का ज्ञान प्राप्त हुआ । यह ग्रन्थ निकोलस नोटोविश नाम के एक रूसी के 'हाय लग गया या; उसने फ्रेंच भाषा में इसका अनुवाद सन् १८६४ ईसवी में प्रकाशित किया है । बहुतेरे ईसाई पण्डित कहते हैं कि, नोटोविश का अनुवाद सच भले ही हो; परन्तु मूल ग्रन्थ का प्रणेता कोई लफंगा है, जिसने यह वनावटी अन्य गढ़ डाला है। हमारा भी कोई विशेष भाग्रह नहीं है कि उक्त अन्य को ये पण्डित लोग सत्य ही मान लें । नोटोविश को मिला हुआ ग्रन्थ सत्य हो या प्राप्तिः परन्तु हमने केवल ऐतिहासिक दृष्टि से जो विवेचन ऊपर किया है, उससे यह बात स्परतया विदित हो जायगी कि यदि ईसा को नहीं तो निदान उसके उन भक्तों को- कि जिन्होंने नई बाइवल में उसका चरित्र लिखा है-बौद्धधर्म का ज्ञान होना असम्भव नहीं था, और यदि यह बात असम्भव नहीं है तो ईसा और बुद्ध के चरित्र तथा उपदेश में जो विलक्षण समता पाई जाती है, उसकी स्वतन्त्र रीति से उत्पत्ति मानना भी युक्तिसङ्गत नहीं जचता * । सारांश यह है कि मीमांसकों का केवल वाबू रमेशचंद्र दत्त का भी यही मत है, उन्हों ने इसका विस्तारपूर्वक विवेचन Byght Tag forat Romesh Chander Datt's History of Civilization in ancient India, Vol. 11. Chap. XX. pp. 328–340. गी.र.७५