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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६४३

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६०४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। ... ... . .. ... प्रियता २० इस धर्म का आचरण करनेवाले श्रद्धालु भक्त भगवान् को अत्यन्त प्रिय हैं।... ...पृ. ७७३-७८० तेरहवाँ अध्याय -क्षेत्र-क्षेत्रमविभागयोग। १,२ क्षेत्र और क्षेत्र की व्याख्या । इनका ज्ञान ही परमेश्वर का ज्ञान है। ३, ४ क्षेत्र क्षेत्रज्ञविचार उपनिपदों का और ब्रह्मसूत्रों का है।५,६ नेत्र-स्वरूपलक्षण! ७-११ ज्ञान का स्वरूप-लक्षण । तद्विल्द अज्ञान । १२-१७ झंय के स्वरूप का शक्षण । १८ इस सब को जान लेने का फल । १६-२१ प्रकृति-पुरुष-विवेक । करने धरनेवाली प्रकृति है, पुरुष भकर्ता किन्तु भोक्ता, दृष्टा इत्यादि है। २२, २२ पुरुष ही देह में परमात्मा है। इस प्रकृति-पुरुष-ज्ञान से पुनर्जन्म नष्ट होता है। २४, २५ आत्मज्ञान के मार्ग-ध्यान, सांख्ययोग, कर्मयोग और श्रद्धापूर्वक श्रवण से भक्ति।२६-२८ क्षेत-क्षेत्र के संयोग से स्थावर-जङ्गम सृष्टिः इसमें जो भवि. नाशी है वही परमेश्वर है। अपने प्रयत्न से उसकी प्राप्ति । २९,३० करने, धरनेवाली प्रकृति है और आत्मा प्रकर्ता है। सब प्राणिमात्र एक में हैं और एक से सब प्राणिमात्र होते हैं । यह जान लेने से ग्रह्म-प्राप्ति । ३१-३३ भात्मा अनादि मौर निर्गुण है, अतएव यद्यपि वह क्षेत्र का प्रकाशक है तथापि निर्लेप है। ३४ क्षेत्र क्षेत्र के भेद को जान लेने से परम सिदि। पृ० ७८१-७४२ चौदहवाँ अध्याय-गुणत्रयविभागयोग। १, २ ज्ञान-विज्ञानान्तर्गत प्राणि वैचित्र्य का गुण-भेद से विचार। यह भी मोक्षप्रद है।३, ४ प्राणिमात्र का पिता परमेश्वर है और उसके अधीनस्थ प्रकृति. माता है।५-६ प्राणिमात्र पर सत्त्व, रज और तम के होनेवाले परिणाम | १०- एक एक गुण अलग नहीं रह सकता । कोई दो को दवा कर तीसरे की वृदिः और प्रत्येक की वृद्धि के लक्षण । १४-१८ गुण-अवृद्धि के अनुसार कर्म के फल, और मरने पर प्राप्त होनेवाली गति । १६, २० त्रिगुणातीत हो जाने से मोक्ष-प्राप्ति । २१-२५ अर्जुन के प्रश्न करने पर त्रिगुणातीत के लक्षण का और भाचार का वर्णन। २६, २७ एकान्तभकि से त्रिगुणातीत अवस्था की सिद्धि, और फिर सब मोक्ष के, धर्म के, एवं सुख के अन्तिम स्थान परमेश्वर की प्राति । ... ...० ७६३-७EE I पन्द्रहवाँ अध्याय-पुरुषोत्तमयोग। १,२अश्वत्थरूपी ब्रह्मवृक्ष के वेदोक्त और सांख्योक्त वर्णन का मेल।३-६असङ्ग से इसको काट डालना ही इससे परे के अन्यय पद की प्राप्ति का मार्ग है। अव्यय पद-वर्णन 1७-११ जीव और लिङ्ग-शरीर का स्वरूप एवं संबंध । ज्ञानी के लिये गोचर है । १२-१५ परमेश्वर की सर्वव्यापकता । १६-१८ क्षरावर-लक्षण । इससे पर पुरुषोत्तम । ३६, २० इस गुह्य पुरुषोत्तम-ज्ञान से सर्वज्ञता और कृत- कृत्यता। १३ पृ०८००-८०८