पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

i गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । न योत्स्य इति गोविंदमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥९॥ तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥१०॥ श्रीभगवानुवाच । 88 अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। स्वामित्व मिल जाय, तथापि मुझे ऐसा कुछ भी (साधन) नहीं नज़र पाता, कि जो इन्द्रियों को सुखा डालनेवाले मेरे इस शोक को दूर करे । साय ने कहा -() इस प्रकार शनुसन्तांपी गुढाकेश अर्थात् अर्जुन ने हृषीकेश (श्रीकृष्ण) से कहा और "मैं न लडूंगा" कह कर वह चुप हो गया (१०) । (फिर) हे भारत (तराष्ट्र)! दोनों सेनाओं के बीच खिन्न होकर बैठे हुए अर्जुन से श्रीकृष्ण कुछ इंसते हुए से बोले [एक ओर तो क्षत्रिय का स्वधर्म और दूसरी ओर गुरुहत्या एवं कुलचय के पातकों का भय-इस खींचातानी में " मरया मार" के झमेले में पड़ कर मिचा माँगने के लिये तैयार हो जानेवाले अर्जुन को अव भगवान् इस नगर में उसके सबे कर्तव्य का उपदेश करते हैं। अर्जुन की शंका थी. कि लड़ाई जैसे घोर कर्म से आत्मा का कल्याण न होगा। इसी से, जिन उदार पुरुषों ने परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर अपने मात्मा का पूर्ण कल्याण कर लिया है, वे इस दुनिया में कैसा बर्ताव करते है, यहीं से गीता के उपदेश का प्रारम्भ हुआ है । भगवान् कहते हैं, कि संसार की चाल-ढाल के परखने से देख पड़ता है, कि आत्मज्ञानी पुरुषों के जीवन बिताने के प्रनादिकाल से दो मार्ग चले आ रहे हैं (गी. ३.३, और गीता र. प्र.११ देखो) प्रात्मज्ञान सम्पादन करने पर शुक सरीखे पुरुप संसार छोड़ कर मानन्द से भिक्षा माँगते फिरते हैं, तो जनक सरीखे दूसरे प्रात्मज्ञानी ज्ञान के पश्चात् भी स्वधर्मानुसार लोक के कल्याणार्थ संसार के सैकड़ों व्यवहारों में अपना समय लगाया करते हैं। पहले मार्ग को सांख्य या सांख्यनिष्ठा कहते हैं और दूसरे को कर्मयोग या योग कहते हैं (लो. ३६ देखो)। यद्यपि दोनों निष्ठाएं प्रचलित हैं, तथापि इनमें कर्मयोग ही अधिक श्रेष्ठ है-गीता का यह सिद्धान्त आगे बतलाया जावेगा (गी ५.२)। इन दोनों निष्टाओं में से अब अर्जुन के मन की चाह संन्यासनिष्टा की और ही अधिक बढ़ी हुई थी। अतएव उसी मार्ग के तत्वज्ञान से पहले अर्जुन की भूल उसे सुझा दी गई है और आगे ३६ वे श्लोक से कर्मयोग का प्रतिपादन करना भगवान् ने आरम्भ कर दिया है । सांख्य- मार्गवाले पुरुष ज्ञान के पश्चात् कर्म भले ही न करते हों, पर उनका ब्रह्मज्ञान और कर्मयोग का ब्रह्मज्ञान कुछ जुदा-जुदा नहीं। तव सांख्यनिष्ठा के अनुसार देखने पर मी मात्मा यदि अविनाशी और नित्य है, तो फिर यह यकवक व्यर्थ है, कि "मैं अमुक को कैसे माल"। इस प्रकार किञ्चित् उपहासपूर्वक भर्जुन से भगवान् का प्रयम कथन है।]