गीता, अनुवाद और टिप्पणी- ३ अध्याय । तृतीयोऽध्यायः । अर्जुन उवाच । ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तात्क कर्माणि घोरे मांनियोजयसि केशव ॥१॥ व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे । तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥२॥ श्रीभगवानुवाच । SS लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । विषयों का वर्णन होता है। जिस अध्याय में, जो विषय प्रारम्भ में भा गया है, अथवा जो विषय उसमें प्रमुख है, उसी के अनुसार उस अध्याय का नाम रख दिया जाता है। देखो गीतारहस्य प्रकरण १४. पृ. ४४४ 1] तीसरा अध्याय । [अर्जुन को यह भय हो गया था कि मुझे भीम-द्रोण आदि को मारना पड़ेगा। अतः सांख्यमार्ग के अनुसार भात्मा को नित्यता और प्रशोच्यत्व से यह सिद्ध किया गया, कि अर्जुन का भय घृया है। फिर स्वधर्म का थोड़ा सा विवेचन करके गीता के मुख्य विषय, कर्मयोग का दूसरे अध्याय में ही प्रारम्भ किया गया है और कक्षा गया है कि कर्म करने पर भी उनके पाप-पुण्य से बचने के लिये फेवल यही एक युकि या योग है, कि वे फर्म साम्यबुद्धि से किये जावें। इसके अनन्तर अंत में उस कर्मयोगी स्थितप्रज्ञ का वर्णन भी किया गया है कि जिसकी बुद्धि इस प्रकार सम हो गई हो । परन्तु इतने से ही कर्मयोग का विवेचन पूरा नहीं हो जाता। यह बात सच है कि कोई भी काम समबुद्धि से किया जावे तो उसका पाप नहीं लगता; परन्तु जब कर्म की अपेक्षा समबुद्धि की ही श्रेष्ठता विवादरहित सिद्ध होती है(गी. २. ४८),तव फिर स्थितप्रज्ञ की नाई बुद्धि को सम कर लेने से ही काम चल जाता है इससे यह सिद्ध नहीं होता कि कर्म करना ही चाहिये । अतएव जब अर्जुन ने यही शंका प्रारूप में उपस्थित की, तब भगवान् इस अध्याय में तथा भगले अध्याय में प्रतिपादन करते हैं कि "कर्म करना ही चाहिये ।"] अर्जुन ने कहा--(१) हे जनार्दन ! यदि तुम्हारा यही मत है कि कर्म की अपेक्षा (साम्य-)पुद्धि ही श्रेष्ठ है, तो हे केशव ! मुझे (युद्ध के) घोर कर्म में क्यों लगाते हो? (२) (देखने में) व्यामिश्र अर्थात् सन्दिग्ध भाषण करके तुम मेरी घुद्धि को श्रम में डाल रहे हो। इसलिये तुम ऐसी एक ही बात निश्चित करके मुझे बतलामो, जिससे मुझे श्रेय अर्थात् कल्याण प्राप्त हो ।
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