पीता, अनुवाद और टिप्पणी- ४ अध्याय । विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥ १॥ एवं परंपराप्राप्तमिमं राजर्पयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥२॥ स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं घेतदुत्तमम् ।। ३ ॥ श्रीभगवान् ने कहा-(१) अन्यय अर्थात् कभी भी क्षीण न होनेवाला प्रथया निफान में भी प्रयाधित और नित्य यह (कर्म-) योग (मार्ग) मैं ने विवस्वान् प्पर्थात् सूर्य को बतलाया था; विवस्वान् ने (अपने पुत्र) मनु को, और मनु ने (अपने पुत्र) इक्ष्वाकु को पतलाया । (२) ऐसी परम्परा से प्राप्त हुए इस (योग) को राजर्षियों ने जाना । परन्तु हे शत्रुतापन (अर्जुन)! दीर्घकाल के अनन्तर वही योग इस लोक में नष्ट हो गया। (३) (सब रहस्यों में) उत्तम रहस्य समझ कर इस पुरातन योग (कर्मयोगमार्ग) को, मैंने तुझे आज इसलिये पतला दिया, कि समेरा भक्त और सखा है। [गीतारहस्य के तीसरे प्रकरण (पृ. ५५-६४) में हम ने सिद्ध किया है, कि इन तीनों लोकों में योग' शब्द से, आयु बिताने के उन दोनों मागों में से कि जिन्हें सांण्य और योग कहते हैं योग अर्थात् कर्मयोग यानी साम्यबुद्धि से कर्म करने का मार्ग ही अभिप्रेत है। गीता के उस मार्ग की जो परम्परा अपर के श्लोक में यतमाई गई है, यह यद्यपि इस मार्ग की जड़ को समझने के लिये अत्यन्त महाव की है, तथापि टीकाकारों ने उसकी विशेष चर्चा नहीं की है। महाभारत के भन्तर्गत नारायणीयोपाख्यान में भागवतधर्म का जो निरूपण है, उसमें जनमेजय से वैशम्पायन कहते हैं, कि यह धर्म पहले श्वेतद्वीप में भगवान् से ही- नारदेन तु संप्रातः सरहस्यः ससंग्रहः। एप धर्मो जगनाथात्सावालारायणानृप ।। एवमेप महान्धर्मः स ते पूर्व नृपोत्तम। कथितो हरिगीतासु समासविधिकल्पितः ॥ नारद को प्राप्त हुआ, हे राजा! वही महान् धर्म तुझे पहले हरिगीता अर्थात् भगवद्गीता में समासविधि सहित बतलाया है"-(ममा. शां.३७६.६,१०)। और फिर कहा है कि "युद्ध में विमनस्क हुए अर्जुन यह धर्म वत्तलाया गया है" (मभा. शां. ३८८)। इससे प्रगट होता है, कि गीता का योग अर्थात कर्मयोग भागवतधर्म का है (गीतार. ४.८-० । विस्तार हो जाने के भय से गीता में उसकी सम्प्रदाय-परम्परा सृष्टि के मूल प्रारम्भ से नहीं दी है। विवस्वान्, मनु और इक्ष्वाकु इन्हीं तीनों का उल्लेख कर दिया है। परन्तु इसका सचा अर्थ नारायणीय धर्म की समस्त परम्परा देखने से स्पष्ट मालूम हो जाता है। ब्रह्मा के कुल सात जाम हैं। इनमें से पहले छःजन्मों की, नारायणीय धर्म में कथित, पर.
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