पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७१८

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-४ अध्याय । ६७६ समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निवद्धयते ॥ २२ ॥ गतसंगत्य मुक्तस्य शानावस्थितचेतसः। यशायाचरतः कर्म समय प्रचिलीयते ॥ २३॥ (२२) याप्छा ले जो प्राप्त हो जाय उसमें सन्तुष्ट, (इप-शोक आदि) द्वन्द्वों से मुक्त, निर्मत्सर, और (कर्म की) सिद्धि या प्रसिद्धि को एक सा हीमाननेवाला पुरुष (कर्म) करके भी (उनके पाप-पुण्य से) बद्ध नहीं होता । (२३) भासारहित, (राग-द्वेष से) मुक्त, (साम्यबुद्धिरूप) ज्ञान में स्थिर चित्तवाले और (केवल) यज्ञ ही के लिये (कर्म) करनेवाले पुरुष के समप्र कर्म विलीन हो जाते हैं! । [तीसरे अध्याय (३.८) में जो यह भाव है, कि मीमांसकों के मत में यज्ञ के लिये किये हुए कर्म बन्धक नहीं होते और आसक्ति छोड़ कर करने से वे ही कर्म स्वर्गप्रद न होकर मोक्षप्रद होते हैं, वही इस श्लोक में बताया गया है। " समग्र विलीन हो जाते हैं " में 'समय' पद महाव का है। मीमां- सक लोग स्वर्गसुख को ही परमसाध्य मानते हैं और उनकी दृष्टि से स्वर्गसुख को प्राप्त करा देनेवाले कर्म बन्धक नहीं होते। परन्तु गीता की टि स्वर्ग से परे प्रर्थात मोक्ष पर है और इस दृष्टि से स्वर्गप्रद कर्म भी बन्धक ही होते हैं। मत- एव कहा है, कि यज्ञार्थ कर्म भी अनासक्त बुद्धि से करने पर समप्र' लय पाते भर्थात् स्वर्गप्रद न होकर मोक्षपद हो जाते हैं। तथापि इस अध्याय में यज्ञ. प्रकरण के प्रतिपादन में और तीसरे अध्यायवाले यज्ञ-प्रकरण के प्रतिपादन में एक पड़ा भारी भेद है। तीसरे अध्याय में कहा है, कि श्रीत-स्मात मनादि यज्ञ- चक को स्थिर रखना चाहिये । परन्तु अव भगवान् कहते हैं, कि यज्ञ का इतना ही संकुचित अर्थ न समझो कि देवता के उद्देश से अप्ति में तिल-चावल या पशु का हवन कर दियाजावे अथवा चातुर्वण्य के कर्म स्वधर्म के अनुसार काम्य मुदि से किये जावें । अप्ति में माहुति छोड़ते समय अन्त में 'इदं न मम'-यह मेरा नहीं-इन शब्दों का उधारण किया जाता है। इनमें स्वार्थ-त्यागरूप निर्ममत्व का जो तत्व है, वही यज्ञ में प्रधान भाग है। इस रीति से न मम" कह कर भात ममता युक्त पुद्धि छोड़ कर, बलार्पणापूर्वक जीवन के समस्त व्यवहार करना भी एक बड़ा यज्ञ या होम ही हो जाता है। इस यज्ञ से देवाधिदेव परमेश्वर अथवा ब्रा का यजन हुआ करता है। सारांश, मीमांसकों के द्रव्ययज्ञसम्पन्धी जो सिद्धांत हैं, वे इस बड़े यज्ञ के लिये भी उपयुक्त होते हैं और लोकसंग्रह के निमित्त जगत् के आसक्ति-विरहित कर्म करनेवाला पुरुष कर्म के समय ' फल से मुक्त होता हुआ अन्त में मोक्ष पाता है (गीतार. पृ.३४४-३४७ देखो)। इस प्रमाण- रूपी बड़े यज्ञ का ही वर्णन पहले इस श्लोक में किया गया है और फिर इसकी अपेक्षा कम योग्यता के अनेक लाक्षणिक यज्ञों का स्वरूप बतलायर्यों गया है। एवं तेतीसवें श्लोक में समग्र प्रकरण का उपसंहार कर कहा गया है कि ऐसा 'ज्ञान- यज्ञ ही सब में श्रेष्ठ है।'