पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७२०

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-४ अध्याय । ६८१ आत्मसंयमयोगानी जुह्वति शानदीपिते ॥ २७ ।। द्रव्ययशास्तपोयशा योगयशास्तथापरे । कों को अर्थात् व्यापारों को ज्ञान से प्रज्वलित पात्मसंयमरूपी योग की प्राप्ति में हवन किया करते हैं। । [इन श्लोकों में दो-तीन प्रकार के लाक्षणिक यज्ञों का वर्णन है जैसे (1) इन्द्रियों का संयमन करना अर्थात् उनको योग्य मर्यादा के भीतर अपने-अपने च्यवहार फरने देना; (२) इन्द्रियों के विषय अर्यात् उपभोग के पदार्थ सर्वथा बोड़ कर इन्द्रियों को बिलकुल मार डालना; (३)न फेवल इन्द्रियों के व्यापार को, प्रत्युत प्राणों के भी व्यापार को बन्द कर पूरी समाधि लगा करके केवल मात्मानन्द में ही मन रहना। भय इन्हें यज्ञ की उपमा दी जाय तो, पहले भेद में इन्द्रियों को मर्यादित करने की क्रिया (संयमन) अभि दुई क्योंकि टान्त से यह कहा जा सकता है कि इस मादा के भीतर जो कुछ मा जाय, उसका उसमें इवन हो गया। इसी प्रकार दूसरे भेद में साक्षात् इन्द्रियाँ होम-द्रव्य है और तीसरे भेद में इन्द्रियों एवं प्राण दोनों मिल कर होम करने के द्रव्य हो जाते भार प्रात्मसंयमन प्राग है। इसके अतिरिक्त कुछ लोग ऐसे हैं, जो निरा प्राणायाम किया करते हैं उनका वर्णन वन्तीसवें श्लोक में है। 'यज्ञ' शब्द के मूल अर्थ द्रव्यात्मक यज्ञ को लक्षणा से विस्तृत घोर व्यापक कर तप, संन्यास, समाधि एवं प्राणायाम प्रभृति भगवत्माप्ति के सय प्रकार के साधनों का एक 'यज्ञ' शीर्षक में ही समावेश कर दिया गया है । भगवनीता की यह कल्पना कुछ अपूर्व नहीं है। मनुस्मृति के चौथे अध्याय में गृहस्थाश्रम के वर्णन के सिलसिले में पहले यह यतलाया गया है, कि ऋपि-यज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, मनुष्य- यज्ञ और पितृयज्ञ-इन स्मार्त पञ्चमहायज्ञों को कोई गृहस्थ न छोड़े और फिर कहा है कि इनके बदले कोई कोई "इन्द्रियों में वाणी का इवन कर, वाणी में प्राण का इवन करके, अन्त में ज्ञानयज्ञ से भी परमेश्वर का यजन करते हैं। (मनु. ४. २१-२४) । इतिहास की दृष्टि से देखें, तो विदित होता है, कि इन्द्र- वरुण प्रभृति देवताओं के उद्देश से जो द्रव्यमय यज्ञ श्रीत प्रन्यों में कहे गये हैं उनका प्रचार धीरे धीरे घटता गया और जय पाताज-योग से, संन्यास से अथवा आध्य त्मिक ज्ञान से परमेश्वर की प्राप्ति कर लेने के मार्ग अधिक-अधिक प्रचलित होने लगे लय, 'यज्ञ' शब्द का अर्थ विस्तृत कर उसी में मोक्ष के समन उपायों का लक्षणा से समावेश करने का प्रारम्भ हुंआ होगा। इसका मर्म यही है, कि पहले जो शब्द धर्म की दृष्टि से प्रचलित हो गये थे, उन्हों का उपयोग अगले धर्ममार्ग के लिये भी किया जावे। कुछ भी हो; मनुस्मृति के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है. कि गीता के पहले, या अन्ततः उस काल में, उक्त कल्पना सर्व- मान्य हो चुकी थी। (२८) इस प्रकार तीक्ष्ण व्रत का आचरण करनेवाले यति अर्थात संयमी पुरुष गी.र.८६