पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७५९

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७२० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । रसोऽहमप्सु कौतेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥ ८॥ पुण्यो गंधः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ। जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥९॥ वीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् । वुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥ १० ॥ बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम् । धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥ ११॥ ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये। मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥ १२ ॥ प्रकरण देखो। चौथे श्लोक में कहा है, कि पृथ्वी, आप प्रभृति पञ्चतत्त्व मैं ही हूँ और अब यह कह कर कि इन तत्त्वों में जो गुण हैं वे भी मैं ही हूँ ऊपर के, इस कथन का स्पष्टीकरण करते हैं, कि ये संव पदार्थ एक ही धागे में मणियों के समान पिरोये हुए हैं- (६) हे कौन्तेय ! जल में रस मैं हूँ, चन्द्र-सूर्य की प्रभा मैं हूँ, सब वेदों में प्रणव अर्थात् ॐकार मैं हूँ, आकाश में शब्द मैं हूँ, और सब पुरुषों का पौरुष मैं हूँ। (६) पृथ्वी में पुण्यगन्ध अर्थात् सुगन्धि एवं अग्नि का तेज मैं हूँ। सब प्राणियों की जीवनशक्ति और तपस्वियों का तप मैं हूँ। (१०) हे पार्थ ! मुझ को सव प्राणियों का सनातन बीज समझ । बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज भी मैं हूँ। (११) झाम-(वासना) और राग अर्थात् विषयासक्ति (इन दोनों को) घटा कर बलवान् लोगों का बल मैं हु और हे भरतश्रेष्ठ! प्राणियों में, धर्म के विरुद्ध न जानेवाला, काम भी मैं हूँ, (१२) और यह समझ कि जो कुछ साविक, राजस या तामस भाव अर्थात् पदार्थ हैं, वे सब मुझ से ही हुए हैं परन्तु वे मुझ में हैं, मैं उनमें नहीं हूँ। i ["वे मुझ में हैं, मैं उनमें नहीं हूँ" इसका अर्थ बड़ा ही गम्भीर हैं। पहला अर्थात् प्रगट अर्थ यह है, कि सभी पदार्थ परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं। इसलिये मणियों में धागे के समान इन पदार्थों का गुण-धर्म भी यद्यपि परमेश्वर ही है, तथापि परमेश्वर की न्याति इसी में नहीं चुक जाती; समझना चाहिये कि इनको व्यास कर इनके परे भी वही परमेश्वर है और यही अर्थ आगे " इस समस्त जगत् को मैं एकांश से च्यात कर रहा हूँ" (गी. १०. ४२) इस श्लोक में वर्णित है। परन्तु इसके अतिरिक्त दूसरा भी अर्थ सदैव विवक्षित रहता है। वह यह कि त्रिगुणात्मक जगत् का नानात्व यद्यपि मुझ से निर्गुण हुआ देख पड़ता है, तथापि वह नानात्व मेरे निर्गुण स्वरूप में नहीं रहता और इस दूसरे अर्थ को मन में रख कर " भूतभृतु न च भूतस्यः" (.४ और ५) इत्यादि