पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७६

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कर्मजिज्ञासा। ३४ विवामिन को "पज पचनखा भक्ष्याः " (मनु. ५.१८)' इत्यादि शास्त्रार्थ यतला कर मभक्ष्य-भतण - और वह भी चोरी से-न करने के विषय में बहुत उपदेश किया । परन्तु विश्वामिन ने उसको डाँट कर यह उत्तर दियाः- पिचन्त्येवोदकं गावो मंडकेषु वत्स्वपि । न तेऽधिकारो धर्मऽस्ति मा भूरात्मप्रशंसकः ।। "अर! यद्यपि मढ़कर किया करते हैं तो भी गौएँ पानी पीना बंद नहीं करतीं चुप रह! मुझको धर्मज्ञान बताने का सेरा अधिकार नहीं है। व्यर्थ अपनी प्रशंसा मत कर । " उसी समय विधामित्र ने यह भी कहा है कि "जीवितं मरणाश्रेयो जीवन्धर्ममवाप्नुयात "- अर्थात् यदि जिंदा रहेंगे तो धर्म का माचरण कर सकेंगे। इसनिये धर्म की रष्टि से मरने की अपेक्षा जीवित रहना अधिक श्रेयस्कर है। मनुजी ने मजीगतं, धागदेव आदि अन्यान्य ऋपियों के उदाहरण दिये हैं जिन्हों ने, ऐसे संकट के समय, इसी प्रकार प्राचरण किया है (मनु. १०. १०५-१०८)। हास नामक अंग्रेज ग्रंथकार लिएता है "किसी कठिन अकाल के समय जय, अनाज मोल न मिले या दान भीन मिले तय यदि पेट भरने के लिये कोई चोरी या साक्षस कम करे तो उसका यह अपराध माफ समझा जाता है। और, मिल ने तो यहाँ तक लिखा है कि ऐसे समय चोरी करके अपना जीवन बचाना मनुष्य का कर्राग्य है! 'मरने से जिंदा रहना श्रेयस्कर है'-क्या विश्वामिस का यह तस्य सर्वथा मनु और याताय ने कहा है कि पुरता, बन्दर आदि जिन जानवरों के पांच पांच नख होते है उन्हीं में से खुरगोश, गमा, गोद आदि पनि प्रकार के जानवरों का मांस भक्ष्य है, ( मनु. ५.१८; याश. १.१७७)। इन पान बानयरों के अतिरिक्त मनुजी ने सन 'अर्थात गेटे को भी भय माना है। परन्तु टीगाकार का कथन है कि इन विषय में विकल्प है। इस विकल्प को छोड़ देने पर शेप पांच ही जागवर रहते है और उन्हीं का मांस भक्ष्य समझा गया है | "पन पानता भक्ष्याः " या यही अर्थ है, तथापि मीमां- सकों के मतानुसार इस प्यपरथा का भावार्थ यही है कि जिन लोगों को मांस खाने की सम्मति दी गई दे ये उस पानखी पाच जानवरों के सिवा, और पिसी जानवर का मांस न खायें। इसका भावार्थ यह नदी है कि, इन जानवरों का मांस खाना चाहिये। इस पारिभाषिक अर्थ को वे लोग परिसंख्या' कहते हैं। पज पनसा गक्ष्याः' इसी परिसंख्या का मुख्य उदाहरण है। जम कि मांस खाना ही निषिद्ध माना गया है तब इन पांच जानवरों का मांस खाना भी निपिद्धही सगसा जाना नाहिये। † Lobbos' Leviathan, l'art II. olinp. XXVII. P. 189 (Morley's Univorsal Library Edition ). Mill's Vlilitarianismi, Chap. V P. 95. ( 15th Ed. )" Thus, to bato a lifo, it may not only be allowable bat a duty to stoal etc. . "