गीता, अनुवाद और टिप्पणी ८ अध्याय । ७३१ यः प्रयाति स महावं याति नास्यत्र संशयः ॥५॥ यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यंत कलेवरम् । तं तमेवैति कौतय सदा मद्भावभावितः ॥ ६॥ का स्वतन्त्र वर्णन नहीं है, अधियज्ञ की व्याख्या करने में अधिदेह का पर्याय से महेख हो गया है किन्तु हमें यह अर्थ ठीक नहीं जान पड़ता। क्योंकि न केवल गीता में ही, प्रत्युत उपनिषदों और वेदान्तसूसों में भी (यु. ३. ७; वैसू. १. २. १२०) जहाँ यह विपय आया है, वहीं अधिभूत आदि स्वरूपों के साथ ही साप शारीर आत्मा का भी विचार किया है और सिद्धान्त किया है, कि सर्वत्र एक ही परमात्मा है। ऐसे ही गीता में जब की प्राधिदेह के विषय में पहले ही प्रश्न हो चुका है, तब यहीं उसी के पृथक् उल्लेख को विवक्षित मानना युक्तिसङ्गत है। यदि यह सच है कि सब कुछ परब्रह्म ही है तो पहले-पहल ऐसा बोध होनासम्भव है कि उसके अधिभूत श्रादि स्वरूपों का वर्णन करते समय उसमें परपहा को भी शामिल कर लेने की कोई जरूरत न थी । परन्तु नानात्व-दर्शक यह वर्णन उन लोगों को जदय करके किया गया है कि जो ब्रह्मा, प्रात्मा, देवता और यज्ञनारायण आदि अनेक भेद करके नाना प्रकार की उपासनाओं में उलझे रहते हैं। अतएव पहले वे लक्षण यतलाये गये हैं कि जो उन लोगों की समझ के अनुसार होते हैं, और फिर सिद्धान्त किया गया है कि " यह सब मैं हो है"। उक्त बात पर ध्यान देने से कोई भी शक्षा नहीं रह जाती । प्रस्तु: इस भेद का तत्व बतला दिया गया कि उपासना के लिये अधिभूत, अधिदेवत, अध्यात्म, अधियज्ञ और मधिदेव प्रभृति अनेक भेद करने पर भी यह नानात्व सशा नहीं है। वास्तव में एक ही परमेश्वर सब में व्याप्त है। अव अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि अन्तकाल में सर्वव्यापी भगवान् कैसे पहचाना जाता है-] (५) और अन्तकाल में जो मेरा सरण करता हुआ देह त्यागता है, वह मेरे स्वरूप में निःसन्देह मिल जाता है। (६) अथवा है कौन्तेय ! सदा जन्मभर उसी में रहने से मनुष्य जिस भाव का स्मरण करता हुआ अन्त में शरीर त्यागता है, वह उसी भाव में जा मिलता है। [पाँचवें श्लोक में, मरण-समय में परमेश्वर के स्मरण करने की आवश्यकता और फन बतलाया है । सम्भव है, इससे कोई यह समझ ले कि केवल मरण- काल में यह स्मरण करने से ही काम चल जाता है। इसी हेतु से छठे श्लोक में यह बतलाया है, कि जो बात जन्मभर मन में रहती है वह मरण काल में भी नहीं छूटती, अतएव न केवल मरण काल में प्रत्युत जन्मभर परमेश्वर का स्मरण और उपासना करने की आवश्यकता है (गीतार. पृ. २८)। इस सिद्धान्त को मान लेने से आप ही आप सिद्ध हो जाता है, कि अन्तकाल में परमेश्वर को भजनेवाले परमेश्वर को पाते हैं और देवताओं का स्मरण करनेवाले देवताओं को 1
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