पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७७३

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ १४ ॥ मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥१५॥ आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन । मामुपेत्य तु कौतेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १६ ॥ IF सहन्नयुगपर्यन्तमहर्यन्ब्रह्मणो विदुः । रात्रि युगसहन्त्रांतां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ १७ ॥ रहता है, उस निन्नयुक (कर्म) योगी को मेरी प्राति सुलम रीति से होती है। (१५) सुमन मिल जाने पर परमसिद्धि पाये हुए महात्मा उस पुनर्जन्म को नहीं पाते किलो दुःखों का घर है और अशाचत है । (६) हे अर्जुन ! ब्रह्मलोक तक (स्वर्ग यादि) जितने लोग हैं वहाँ से (कनी न कभी इस लोक में) पुनरावर्तन घर लौटना (पड़त) है परन्तु दे कौन्तेय! मुझमें मिल जाने से पुनर्जन्म नहीं होता। [सोलहवें श्लोक के 'पुनरावर्तन' शब्द का अर्थ पुण्य चुक जाने पर भूलोक ने लौट आना है (देखो गी. ६.२१ ममा. वन. २६०)। यज्ञ, देवता- राधन और देदाध्ययन प्रति कनों से यद्यपि इन्द्रलोक, वल्गलोक, सूर्यलोक और बहुत हुआ, तो ब्रह्मलोक प्राप्त हो जावे, तथापि पुण्यांश के समाप्त होने ही वहाँ से गिर इस लोक में जन्म लेना पड़ता है (कृ. ४. १. ६), प्रयवा मान्यतः ग्रह्मलोक का नाश हो जाने पर पुनर्जन्म-चक्र में तो जरूर ही गिरना पड़ता है। अतएव उक श्लोक का भावार्थ यह है, कि अपर लिखी हुई सब गतियाँ कम दर्जे की है और परमेश्वर के ज्ञान से ही पुनर्जन्म नष्ट होता है, इस मरण वही गति सर्वश्रेष्ट है (गी. ६.२०, २) अन्त में जो यह कहा है, कि ब्रह्मलोक की प्राति भी अनिल है, उसके समर्थन में बतलाते हैं कि ब्रह्मलोक तक समस्त सृष्टि की उत्पत्ति और लय वारंवार कैसे होता रहता है-] (1) अहोरात्र को (तत्वतः) जाननेवाले पुरुष सममाने हैं, कि (कृत, नेता, द्वापर और कलि इन चारों युगों का एक महायुग होता है और ऐसे) हज़ार (महा.) युगों का समय ब्रह्मदेव का एक दिन है, और (ऐसे ही) हजार युगों की (उसकी) एक रात्रि है। [यह लोक इससे पहले के युग-मान का हिसाब न देकर गीता में पाया है, इसका अर्थ अन्यन्त्र बतलाते हुए हिसाब से करना चाहिये। यह हिसाव और गांता का यह लोक भी भारत (शा. २३३.३१) और मनुस्मृति (१. ७३) में है क्या यास्क के निरुक में भी यही अर्थ वर्णित है (निरुक. ११.६) ब्रह्म देव के दिन को ही कल कहते हैं। अगले लोक में अन्यक्त का अर्थ सांख्यशाल की अन्यक प्रवति है, अन्नक का अयं परवा नहीं है क्योंकि २० वें श्लोक में सष्ट बना दिया है कि ब्रह्मल्पी अव्यक्त लोक में वर्णित अन्यक्त से परे