पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८०३

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७६४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥९॥ अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् । अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् १० ॥ दित्यमाल्यांवरधरं दिव्यगंधानुलेपनम् । सर्वाश्चर्यमयं देवमनंत विश्वतोमुखम् १६ ॥ दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता । यदि भाः सशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥१२॥ तत्रैकस्थं जगत्कृत्वं प्रविभकमनेकधा । अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पांडवस्तदा ॥ १३ ॥ ततः स विस्मयाविष्टो हटरोमा धनंजयः। प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरमापत ।। १४ ।। अर्जुन उवाच । 8 पश्यामि देवास्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान् । ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृपींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥१५॥ अनेकबाहुदुरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनंतरूपम् । नांतं न मध्यं न पुनस्तवादि पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥१६॥ सञ्जय ने कहा-९) फिर हे राजा धृतराष्ट्र ! इस प्रकार कह करके योगों के ईश्वर हरि ने अर्जुन को (अपना) श्रेष्ठ ईश्वरी रूप अर्थात् विश्वरूप दिखलाया । (१०) उसके अर्थात् विश्वरूप के अनेक मुख और नेत्र थे, और उसमें अनेक अद्भुत श्य देख पड़ते थे, उस पर अनेक प्रकार के दिव्य अलकार थे और उस में नाना प्रकार फे दिव्य भायुध सजित थे। (११) उस अनन्त, सर्वतोमुख और सव आश्चयों से भरे हुए देवता के दिव्य सुगन्धित उबटन लगा हुआ था और वह दिव्य पुष्प एवं वन धारण किये हुए था। (१२) यदि आकाश में एक हज़ार सूर्यों की प्रमा एकसाप हो, तो वह उस महात्मा की कान्ति के समान (कुछ कुछ) देख पड़े ! (१३) तब देवा- धिदेव के इस शरीर में नाना प्रकार से बँटा हुआ सारा जगत् अर्जुन को एकत्रित दिखाई दिया । (१४) फिर आश्चर्य में दबने से उसके शरीर पर रोमाञ्च खड़े हो भाये; और मस्तक नवा कर नमस्कार करके एवं हाथ जोड़ कर उस अर्जुन ने देवता से कहा- अर्जुन ने कहा-(१५) हे देव! तुम्हारी इस देह में सब देवताओं को और . नानाप्रकार के प्राणियों के समुदायों को, ऐसे ही कमलासन पर बैठे हुए (सव देवः वाओं के स्वामी ब्रह्मदेव, सव ऋषियों, और (वासुकि प्रभृति) सब दिव्य सपा को भी मैं देख रहा हूँ। (१६) अनेक बाहु, अनेक उदर, अनेक मुख और अनेक नेत्रधारी, अनन्तरूपी तुम्हीं को मैं चारों और देखता हूँ परन्तु हे विश्वेश्वर, विश्व-