पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८१२

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गीता, अनुवाद गौर टिप्पणी- १२ अध्याय। ७७३ निरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पांडवः ॥ ५५ ॥ इति श्रीगगगनीसासु उपनिषत्सु गवामियागो गोगशारे शोषणार्जुन- संगादे विरूपदर्शनं नाग एकादशोऽप्यायः ॥ ११॥ के, सया फर्ना श्रीर फरानेपाना यादी मिन्ट मे निमित पना कर यह ये पर्म हमसे करपा रहा ऐसा पारने से पे फर्ग शान्ति अपपा मोव-भाति में पापक नहीं होते । शरमाण में भी यही कहा कि इस लोक में पूरे गीताशास का तात्पर्य आ गया है। इससे प्रगट किगीता का भरिमार्ग गह नहीं कहा कि पाराम से 'राम राम जपा परोपरयुस उसका कथन है कि स्कट भक्ति के साथ साप उत्साह से सप निष्काम कर्म करते रहो। संन्यास-मायाले कहते कि निर का अर्थ निविक्रय परन्तु यह मर्ष यही विवापिसनदी, इसी यारा को प्रगट करने के लिये उसके साथ गर्मशत अर्थात 'सय कर्मी को परमार के (अपने मी) सममा भर परमेशरापंगा गादि से गारगेवाला विशेषगा जगाया गया है। इस विषयका वियरा विधार गीतारपण के यारह प्रगारगा (X.३६०-३६७) में किया गया है। इस प्रकार श्रीभगयार गे गाये हुए मर्यात गोप पनिषद में, प्रापिणान्तर्गत पोग-अर्थात् पाठयोग-शासविषयक, श्रीरामाचौर भगगोसंपाद में, विक्षरुप- पर्शनयोग गाममा ग्यारस्पों पयाय समाप्त हुभा। चारहवाँ अध्याय। [गार्मयोग की सिद्धि के लिये सातये मध्याय में शान-पिशान के निरुपण का बारम्भ कर पाठप में मार, जानियंग पीर पप्या का स्वरूप पतपाया है। फिर नई मण्याय में भारतरूप प्रत्यय राजमार्ग के निरूपण का प्रारम्भ करने यस जौर ग्यारह में सदन्तर्गत विभूति-पर्णन 'ए' विक्षरूप-पर्शन'न यो पा. गानों का पर्यात किया समोर गार अध्याय के अन्त में सार रूप से भाग को पपदेश किया है कि भक्ति से एक मिस यूनिट से सगस्त फर्म करते रहो। भष इस पर भर्शन का प्रभ कि कर्मयोग की सिनि के लिये सातयें और पाठ पाण्याय में पर-अपर विचार पूर्वक परमेार को प्रारूप को अंध सिर परफे मन्या की भषपा भक्षर की उपासना (७. १६ और २४ ८.२१) परणाई है और उपदेश किया है कि युगापित से युद्ध कर(८.७) एवं गर्दै अध्याय में या उपा सना रूप प्रत्यक्ष धर्म पतला कर कहा कि परमेश्वराणा पुदि से सभी फर्म करना पारिगे (. २७, २५ और ११.५५), सो भय इन दोनों में श्री मार्ग गौन सा है?