पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८१४

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-१२ अध्याय । ७७५ भवामिन चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥७॥ मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय। निवसिम्यसि मय्येव अत ऊर्व न संशयः॥८॥ SS अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोपि मयि स्थिरम् । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय ॥ ९॥ अभ्यासेऽप्यसमाऽसि मत्कर्मपरमो भव । मत्परायण होते हुए भनन्य योग से मेरा ध्यान कर मुझे भगते हैं, (७) हे पार्थ ! मुझमे चित्त लगानेवाले उन जोगीका, मैं इस मृत्युमय संसार-सागर से पिना विलम्ब किये, उद्धार कर देता हूँ। (८) (अतएव ) मुझम ही मन लगा, मुझमें घुदि को स्थिर कर, इससे तू निःसन्देश मुझमें ही निवास करेगा। [इसमें भक्तिमार्ग की श्रेष्टता का प्रतिपादन है। दूसरे श्लोक में पहले यह सिद्धान्त किया है कि भगवद्भक्त उत्तम योगी है। फिर तीसरे श्लोक में पक्षान्तर- योधक 'तु' अव्यय का प्रयोग कर, इसमें और चौथे श्लोक में कहा है कि अज्यक्त की उपासना करनेवाले भी मुझे ही पाते हैं। परन्तु इसके सत्य होने पर भी पाँचवें श्लोक में यह पतलाया है,कि अध्यक्तं-उपासकों का मार्ग प्राधिक प्लेशदायक होता है छठे और सातवें श्लोक में वर्णन किया है कि अव्यक्त की अपेक्षा व्यक की उपासना सुलभ होती है और पाठ श्लोक में इसके अनुसार व्यवहार करने का अर्जुन को उपदेश किया है। सारांश, ग्यारहवें अध्याय के अन्त (गी. ११.१५) में जो उपदेश कर पाये हैं, यहाँ अर्जुन के प्रश्न करने पर उसी को धद कर दिया है। इसका विस्तारपूर्वक विचार कि, भकिमार्ग में सुलभता क्या है, गीतारहस्य कि तरह प्रकरण में कर चुके हैं। इस कारण यहाँ हम उसकी पुनरुक्ति नहीं करते । इतना ही कहे देते हैं कि अव्यक्त की उपासना कष्टमय होने पर भी मोच- दायक ही है और भक्तिमार्गवालों को स्मरण रखना चाहिये कि भक्तिमार्ग में भी फर्म न छोड़ कर ईश्वरार्पणपूर्वक अवश्य करना पड़ता है। इसी हेतु से छठे श्लोक में "मुझमें ही सब फर्मों का संन्यास करके ये शब्द रखे गये हैं। इसका पट अर्थ यह है कि भक्तिमार्ग में भी फर्मों को स्वरूपतः न छोड़े, किन्तु परमेश्वर में उन्हें अर्थात उनके फलों को अर्पण कर दे । इससे प्रगट होता है कि भगवान् ने इल अध्याय के अन्त में जिस भक्तिमान पुरुष को अपना प्यारा बतलाया है, उसे भी इसी अर्थात् निष्काम कर्मयोग-मार्ग का ही समझना चाहिये, वह स्वरूपतः कर्मसंन्यासी नहीं है। इस प्रकार भक्तिमार्ग की श्रेष्ठता और सुलभता बतला कर अब परमेश्वर में ऐसी भक्ति करने के उपाय अथवा साधन बतलाते हुए, उनके तार- तन्य का भी खुलासा करते हैं- () अब (इस प्रकार) मुझमें भली भांति चित्त को हिपर करते न बन पड़े, तो है धनञ्जय ! अभ्यास की सहायता से अर्थात् पारम्बार प्रयत्न करके मेरी