पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७७७ गीता, अनुवाद और टिप्पणी -१२ अध्याय । IS अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । और इसी से उस सम्प्रदाय का कोई टीकाकार भी नहीं पाया जाता है । अतएच भाज फन गीतों पर जितनी टीकाएँ पाई जाती हैं, उनमें कर्मफल-त्या की श्रेष्ठता अपवादात्मक समझी गई है। परन्तु हमारी राय में यह भूल है। गीता में निष्काम कर्मयोग को ही प्रतिपाय मान लेने से इस श्लोक के अर्थ के विषय में कोई मी अड़चन नहीं रहती । यदि मान लिया जाय कि कर्म छोड़ने से निर्वाह नहीं होता, निष्काम कर्म करना ही चाहिये तो स्वरूपतः कर्मों को त्यागनेवाला ज्ञानमार्ग कर्मयोग से कनिष्ठ निश्चित होता है, कोरी इन्द्रियों की ही कसरत करनेवाला पातञ्जलयोग फर्मयोग से इसका अँचने लगता है और सभी कर्मों को छोड़ देनेवाला भक्तिमार्ग भी कर्मयोग की अपेक्षा कम योग्यता का सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार निष्काम कर्मयोग की श्रेष्ठता प्रमाणित हो जाने पर यही प्रभ रह जाता है कि कर्मयोग में आवश्यक भक्तियुक्त साम्यनुद्धि को प्राप्त करने के लिये उपाय क्या है। ये उपाय तीन है-अभ्यास, ज्ञान और ध्यान । इनमें, यदि किसी से अभ्यास न सधे तो वह ज्ञान अथवा ध्यान में से किसी भी उपाय को स्वीकार कर ले । गीता का कपन है, कि इन उपायों का आचरण करना, ययोक्त कम ले सुनम है। १२ वें श्लोक में कहा है कि यदि इनमें से एक भी उपाय न सधे, तो मनुष्य को चाहिये कि वह कर्मयोग के माचरण करने का ही एकदम प्रारम्भ कर दे। अय यहाँ एक शंका यह होती है कि जिससे अभ्यास नहीं सधता और जिससे ज्ञान-ध्यान भी नहीं होता, वह कर्मयोग करेगा ही कैसे? कई पकों ने निश्चय किया है, कि फिर कर्मयोग को सब की अपेक्षा सुलभ कहना ही निरर्षक है । परन्तु विचार करने से देख पड़ेगा कि इस साक्षेप में कुछ भी जान नहीं है । १२ व लोक में यह नहीं कहा है कि सब कर्मों के फलों का 'एकदम त्याग कर दे। घरन् यह कहा है कि पहले, भगवान् के यतनाये हुए कर्मयोग का आश्रयं करके, (ततः) तदनन्तर धीरे-धीरे इस बात को अन्त में सिद्ध कर ले। और ऐसा अर्थ करने से कुछ भी विसमति नहीं रह जाती । पित्रने अध्यायों में कह भाये हैं कि कर्मफल के स्वल्प आचरण से ही नहीं(गी.२.४०), किन्तु जिज्ञासा (देखो गी. ६. ४४ और हमारी टिप्पणी) हो जाने से भी मनुष्य आप ही आप अन्तिम सिद्धि की ओर खिंचा चला जाता है। अतएव इस मार्ग की सिद्धि पाने का पहला साधन या सीढ़ी यही है कि कर्मयोग का आश्रय करना चाहिये अर्थात इस मार्ग से जाने की मन में इच्छा होनी चाहिये । कौन कह सकता है कि यह साधन अभ्यास, ज्ञान और ध्यान की अपेक्षा मुजभ नहीं है। और १२वें श्लोक का भावार्थ है भी यही । न केवल भगवद्गीता में किन्तु सूर्यगीता में भी कहा है- ज्ञानादुपास्तिरकृया कोकृष्टमुरासनात् । इति यो वेद वेदान्तः स एव पुरुषोत्तमः॥ गी.र. ९८