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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८१८

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी - १२ अध्याय । ७७५ तुल्यनिंदास्तुतिमौनी संतुष्टो येनकनचित् । अनिकेतःस्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥ १९॥ गर्मी, सुख और दुःख समान हैं, और जिसे किसी में भी) आसक्ति नहीं है, (६) जिसे निन्दा और स्तुति दोनों एक सी हैं, जो मितभाषी है, जो कुछ मिल नावे उसी में सन्तुष्ट है, एवं जिलंका चित्त स्थिर है, जो अनिकेत है अर्थात जिसका (धर्म- फलाशारूप) ठिकाना कहीं भी नहीं रह गया है,वह भक्तिमान मुम पुरुष प्यारा है। [अनिकेत' शब्द उन यतियों के वर्णनों में भी अनेक वार आया करता है कि जो गृहस्थाश्रम छोड़, संन्यास धारण करके भिक्षा माँगते हुए घूमते रहते हैं (देखो मनु. ६. २५) और इसका धात्वयं 'बिना. घरवाला' है। अत: इस अध्याय के निर्मम, "सर्वारम्म-परित्यागी' और 'अनिकेत' शब्दों से, तथा अन्यन्त्र गीता में 'त्यक्तसर्वपरिग्रहः'(१.२१), अथवा 'विवित्तसेवी.' १८.५२) इत्यादि जो शब्द हैं. उनके आधार से, संन्यास मागवाले दीकाझर कहते हैं कि हमारे मार्ग का यह परम ध्येय "घर-द्वार छोड़ कर बिना किसी इच्छा के जङ्गलों में आयु के दिन बिताना " ही गीता में प्रतिपाद्य, और वे इसके लिये स्मृतिग्रन्थों के संन्यास-आश्रम प्रकरण के श्लोकों का प्रमाण दिया करते हैं। गीता-वाक्यों के ये निरे संन्यास-प्रतिपादक अर्थ संन्यास-सम्प्रदाय की दृष्टि से महत्व के हो सकते हैं, किन्तु सच्चे नहीं हैं। क्योंकि गीता के अनु. सार निराग्ने' अथवा निष्क्रिय होना सञ्चा संन्यास नहीं है। पीछे कई थार गीता का यह स्थिर सिद्धान्त कहा जा चुका है (देखो गो. ५. २और ६.१,२) कि केवन फलाशा को छोड़ना चाहिये, न कि कर्म की । अतः 'अनिकेत्त'. पद का घर-द्वार छोड़ना अर्थ न करके ऐसा करना चाहिये कि जिसका गीता के कर्मयोग के साथ मेल मिल सकेगी. ४.२०वें श्लोक में कर्मफल की आशा न रखने- वाले पुरुष को ही निराश्रय ' विशेषण लगाया गया है, और गी. ६. ले में, उसी अर्थ में " अनाश्रितः कर्मफलं " शब्द आये है। आश्रय' और 'निकेत' इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है । अतएव अनिकेत का गृहत्यागी अर्थ च करके, ऐसा करना चाहिये कि गुह आदि में जिसके मन का स्थान फँसा नहीं है। इसी प्रकार ऊपर १६ व श्लोक में जो साल्मपरित्यागी' शब्द है सलका भी अर्थ " सारे कर्म या उद्योगों को छोड़नेवाला नहीं करना चाहिये; किन्तु गीता १. ११ में जो यह कहा है कि " जिसके समारम्म फलाशा-विरहित हैं उसके कर्म ज्ञान से दग्ध हो जाते हैं"वैला ही मर्थ यानी “काम्य आरम्भ अर्थात कर्म छोड़नेवाला" करना चाहिये । यह वात गी. १८.२ और १८. ४८ एवं ४८ से सिद्ध होती है। सारांश, जिसका चित्त घर-गृहस्थी में, वालवच्चों में, अथवा संसार के अन्यान्य कामों में उलझा रहता है, उसी को आंगे दुःख होता है । अतएव, गीता का इतना भी कहना है कि इन सब पातों में चित्त को फंसने न दो। और