गीता, अनुवाद और टिप्पणी-१३ अध्याय । ७८१ त्रयोदशोऽध्यायः । श्रीभगवानुवाच । इदं शरीरं कौतय क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥१॥ क्षेत्रहं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । तेरहवाँ अध्याय । [पिछले अध्याय में यह बात सिद्ध की गई है कि भनिर्देश्य और अव्यक्त परमेश्वर का (घुद्धि से) चिन्तन करने पर अन्त में मोद तो मिलता है परन्तु ससकी अपेक्षा, श्रद्धा से परमेश्वर के प्रत्यक्ष और व्यक्त स्वरूप की भक्ति करके परमे- भार्पण पुद्धि से सय कमों को करते रहने पर, वही मोव सुजम रीति से मिल जाता है। परन्तु इतने ही से ज्ञान-विज्ञान का वह निरूपण समाप्त नहीं हो जाता कि जिसका प्रारम्भ सातवें अध्याय में किया गया है। परमेश्वर का पूर्ण शान होने के लिये याक्षरी सृष्टि के घर-प्रचार-विचार के साथ ही साथ मनुष्य के शरीर और आत्मा का अथवा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भी विचार करना पड़ता है। ऐसे ही यदि सामान्य रीति से जान लिया कि सब व्यक्त पदार्प जड़ प्रकृति से उत्पन्न होते हैं, तो भी यह बतलाये बिना ज्ञान-विज्ञान का निरूपण पूरा नहीं होता कि प्रकृति के किस गुण से यह विस्तार होता है और उसका क्रम कौनसा है। भतएव तेरहवें अध्याय में पहले क्षेत्र-क्षेत्र का विचार, और फिर भागे चार अध्यायों में गुगानय का विभाग, पतला कर अठारहवें अध्याय में समन विषय का उपसंहार किया गया है।सारांश, तीसरी पढघ्यायीस्वतन्त्र नहीं है, कर्मयोग की सिद्धि के लिये जिस ज्ञान-विज्ञान के निरूपण का सातवें अध्याय में प्रारम्भ हो चुका है उसी की पूर्ति इस पढघ्यायी में की गई है। देखो गीतारहस्य पृ. ४५६-६।। गीता की कई एक प्रतियों में, इस तेरहवें अध्याय के मारम्भ में, यह श्लोक पाया जाता है" अर्जुन उवाच-प्रकृति पुरुष चैव क्षेत्र क्षेत्रज्ञमेव च । एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञान शेयं च केशव ॥" और इसका अर्थ यह है- अर्जुन ने कहा, मुझे प्रकृति, पुरुष, क्षेत्र, चैत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय के जानने की इच्छा है, सो बतलाओ।" परन्तु सष्ट देख पड़ता है कि किसी ने यह न जान कर कि क्षेत्रनेत्रज्ञविचार गीता में पाया कैसे है, पीछे से यह श्लोक गीता में घुसेड़ दिया है। टीकाकार इस श्लोक को क्षेपक मानते हैं, और क्षेपक न मानने से गीता के श्लोकों की संख्या भी सात सौ से एक प्राधिक बढ़ जाती है। अतः इस श्लोक को हमने भी प्रतित ही मान कर, शाकर भाष्य के अनुसार इस अध्याय का भारम्भ किया है।] श्रीभगवान् ने कहा-(१) हे कौन्तेय! इसी शरीर को क्षेत्र कहते हैं। इसे (शरीर को) जो जानता है उसे, तद्विद अर्थात् इस शास्त्र के जाननेवाले, चैत्रज्ञ
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