गीता, अनुवाद और टिप्पणी- १३ अध्याय । ७६१ घिनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ २७ ॥ लमं पश्यन हि सर्व समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ २८ ।। प्रकृत्यैघ च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः। यः पश्यति तथात्मानमफर्तारं स पश्यति ।।२९ ।। यदा भूतपृथग्भावमंकसमनुपश्यति । तत पच च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥३०॥ अनादित्वाभिर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः । शरीरस्थोऽपि कौतय न करोति न लिप्यते ।। ३१ ।। यथा सर्वगतं सौम्यादाकाशं नोपलिप्यते । सर्वावस्थितां देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ ३२ ॥ यथा मताशयत्यकः करमं लोकमिमं रविः। वाला, सार सय भूतों का नाश हो जाने पर भी जिसका नाश नहीं होता, ऐसे परमे- "यर को जिसने देख लिया, कहना होगा कि उसी ने (सचे तत्व को) पहचाना । (२८) ईयर को सता एक सा ग्यात समझ कर (जो पुरुष) अपने आप ही घात बड़ी करता, अर्थात् अपने भाप पर मार्ग में लग जाता है, वह इस कारण से पराम गति पाता है। [२७ये श्लोक में परमेम्पर का जो लक्षण यतलाया है, वह पीछे गी... २० श्लोक में पा चुका है और उसका खुलासा गीतारहस्य के नवे प्रकरण में या गया है (देखो गीतार. पृ. २१८ और २५५)। ऐसे ही रवें श्लोक में फिर वही बात कही है जो पोछे (गी. ६.५-७) कही जा चुकी है, कि आत्मा अपना यन्धु है और यही अपना शन्नु है । इस प्रकार २६, २७ और २८वें श्लोकों में, सब प्राणियों के विषय में साम्यबुद्धिरूप भाव का वर्णन कर चुकने पर पतलाते ई कि इसके जान लेने से क्या होता है-] (२९) जिसने यह जान लिया कि (स) कर्म सय प्रकार से केवल प्रकृति से सो किये जाते हैं, और प्रात्मा सका है अर्थात कुछ भी नहीं करता, कहना चाहिये कि उसने (सर्थ तय को) पहचान लिया । (३०) जब सब भूतों का पृथक्त्य अर्थात् नानात्व एकता से (दीखने लगे), और इस (एकता)से ही (सय) विस्तार दीखने लगे, तब बाम प्राव होता है। [अथ पतलाते हैं कि भामा निर्गुण, अलित और भाशिय कैसे है-] (३१) हे कान्तय ! अनादि और निर्गुण होने के कारण यह अव्यक्त परमात्मा शरीर में रह कर भी कुछ करता-धरता नहीं है, और उसे (किली भी कर्म का) क्षेप पांव बन्धन नहीं लगता । (३२) जैले प्रकाश चारों ओर भरा हुआ है, परन्तु सूक्ष्म होने के कारण उसे (किसी का भी) लेप नहीं जाता, वैसे ही देह में
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