७६४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। संभवः सर्व भूतानां ततो भवति भारत ॥ ३ ॥ सर्वयोनिषु कौतेय मूर्तयः संभवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं वीजप्रदः पिता ॥४॥ Ss सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः। निवघ्नन्ति महावाहो देहे देहिनमध्ययम् ॥५॥ तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् । सुखसंगेन वध्नाति ज्ञानसंगेन चानध ॥ ६ ॥ रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगससुद्भवम् । तन्निवनाति कोतेय कर्मसंगेन देहिनम् ॥ ७॥ तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहन सर्वदेहिनाम् । प्रमादालस्यनिद्राभिस्तनिवनाति भारत ।। ८॥ सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्माणि भारत । ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ॥ ९ ॥ रखता हूँ, फिर उससे समस्त भूत उत्पन्न होने लगते हैं । (७) हे कौन्तेय ! (पशु- पक्षी आदि) सब योनियों में जो मूर्तियाँ जन्मती हैं, उनकी योनि महत् ब्रह्म है और मैं वीजदाता पिता हूँ। (५) हे नहावाहु ! प्रकृति से उत्पन्न हुए सत्त्व, रज और तम गुण देह में रहनेवाले अन्यय अर्थात् निर्विकार आत्मा को देह में बाँध लेते हैं। () हे निष्पाप अर्जुन। इन गुणों में निर्भलता के कारण प्रकाश डालनेवाला और निर्दोष सावगुण सुख और ज्ञान के साथ (प्राणी को) बाँधता है । (१) रजोगुण का स्वभाव रागात्मक है, इससे तृप्णा और शासक्ति की उत्पत्ति होती है । हे कौन्तेय ! वह प्राणी को कर्म करने के (प्रवृत्तिरूप) सङ्ग से बाँध डालता है। (6) किन्तु तमोगुण अज्ञान से उपजता है, यह सव प्राणियों को मोह में डालता है। हे भारत ! यह प्रमाद, भालस्य और निद्रा से (प्राणी को) बाँध लेता है । (६) सावगुण सुख में, और रजोगुण कर्म में, आलक्ति उत्पन्न करता है। परन्तु है भारत ! तमो- गुण ज्ञान को ढंक कर प्रमाद अर्थात् कर्तव्य-मूढ़ता में या कर्त्तव्य के विस्मरण में आसक्ति उत्पन्न करता है। i [सत्व, रज और तम तीनों गुणों के ये पृथक् लक्षण बतलाये गये हैं। किन्तु ये गुण पृथक्-पृथक् कभी भी नहीं रहते, तीनों सदैव एकत्र रहा करते हैं। उदा. हरणार्थ, कोई भी भला काम करना यद्यपि सत्व का लक्षण है, तथापि मले काम को करने की प्रवृत्ति होना स का धर्म है, इस कारण सात्विक स्वभाव में मी थोड़े ले रज का मिश्रण सदैव रहता ही है । इसी से अनुगीता में इन गुणों का इस प्रकार मिथुनात्मकं वर्णन है कि तम का जोड़ा सव है, और
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