गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । पंचदशोऽध्यायः श्रीमगवानुवाच । ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्यं प्राहुरत्ययम् । कभी वृतरूप ले या वनरूप से जो वर्णन पाया जाता है, उसका बीज क्या है। फिर परमेश्वर के सभी रूपों में श्रेष्ट पुरुषोत्तम-स्वरूप का वर्णन किया है। श्रीभगवान ने कहा-(0) जिस अश्वत्थ वृक्ष का ऐला वर्णन करते हैं कि बड़ (एक) उपर है और शाखाएँ (अनेक नीच , (जो) अव्यय अर्थात् कभी नाश नहीं पाता, (एव) छन्दांसि अर्थात् वेद जिसके पत्ते में उसे (वृक्ष को) जिसने जान लिया वह पुरुष सन्चा विदवेत्ता) है। 1 [उक्त वर्णन ब्रह्मवृक्ष का अर्थात् संभारवृक्ष का है । इस संसार को ही सांख्य-मत-वादी " प्रकृति का विस्तार" और वेदान्ती " भगवान् की माया का पसारा " कहते हैं एवं अनुगीत में इसे ही 'ब्रह्मवृक्ष या ब्रह्मवन ' (ब्रह्मारण्य) कहा है (देखो ममा. अश्व. ३५ और ४७) । एक विलकुल छोटे से बीज से जिस प्रकार बड़ा मारी गगनचुम्बी वृक्ष निर्माण हो जाता है, उसी प्रकार एक अन्यक पासेरवर से दृश्य सृष्टिरूप भन्य वृक्ष उत्पन्न हुना है। यह कल्पना अथवा रूपक न केवल वैदिक धर्म में ही है, प्रत्युत अन्य प्राचीन धर्मों में भी पाया जाता है। यूरोप की पुरानी भाषाओं में इसके नान 'विश्ववृक्ष' या ' जगवृक्ष' हैं। ऋग्वेद (१.२४.७) में वर्णन है कि वरुण लोक में एक ऐसा वृक्ष है कि जिसकी किरणों की जड़ ऊपर (ज) है और उसकी किरणें ऊपर से नीचे (निचीनाः) फैलती हैं । विष्णुसहस्रनाम में “ वारुणो वृक्षः” (वरुण के वृक्ष) को परमेश्वर के हज़ार नामों में से ही एक नाम कहा है । यम और पितर जिस " सुपलाश वृक्ष के नीचे बैठ कर सहपान करते हैं (ऋ. १०. १३५. १), अथवा जिसके " अग्रभाग में स्वादिष्ट पीपल है और जिस पर दो सुपर्ण अर्थात् पक्षी रहते हैं" (ऋ. १. १६४. २२), या "जिस पिप्पल (पीपल) को वायुदेवता (सरुद्धण) हिलाते हैं" (ऋ. ५. ५४. १२) वह वृक्ष भी यही है। अथर्ववेद ने जो यह वर्णन है कि " देवसदन अश्वत्थ वृक्ष तीसरे स्वर्गलोक में (वलालोक में)है" (अथवं. ५. ४. ३ और १६.३६.६) वह भी इसी वृक्ष के लम्बन्ध लें जान पड़ता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.८.१२.२) में अश्वत्थ शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है,-पितृयाण-काल में अग्नि अथवा यज्ञप्रजापति देवलोक से नष्ट हो कर इस वक्ष में अश्व (घोड़े) का रूप धर कर एक वर्ष तक छिपा रहा था, इली से इस वृक्ष का अश्वत्थ नाम हो गया (देखो मिमा. अनु.८५)।कई एक नरुक्तिों का यह भी मत पितृयाण की लम्बी रानि में सूर्य के घोड़े यमलोक में इस वृक्ष के नीचे विश्राम किया करते हैं इस
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