पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८४१

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गीतारहत्य अयत्रा कर्मयोगशास्त्र । अघश्चोन प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला। अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबंधीनि मनुष्यलोके ॥२॥ वृक्षात्मक नाम दिये हैं-"न्यग्रोधोदुम्बरोऽवत्यः" (ममा. अनु. १४८. 10), एवं समाज में भी ये तीनों वृन्न देवतात्मक और पूजने योग्य माने जाते हैं। इसके अतिरिक विष्णुसहवनान और गीता, दोनों ही महाभारत के भाग हैं। जब कि विष्णुसहस्रनाम में गूलर, दरगद (न्यत्रोध) और अश्वस्य ये तीन पृथक् नाम दिये गये हैं। तब गीता में 'अश्वत्य ' शब्द का पोरन ही (सूबर या वरगद नहीं) अयं लेना चाहिये, और मूल ज्ञा अर्थनी वही है। "इन्दादि भयांत् वेद जिसके पत्ते हैं" इस वाश्य के 'बन्दास' शब्द में छठकना धातु नान कर (देखो बां. १.१.२) वृच को ढंकनेवाले पचों से वेदों की समता विर्णित है और अन्त में कहा है कि जब यह सम्पूर्ण वर्णन वैदिक परम्परा के अनुहार है, तब इसे निसने जान लिया उसे वेवेचा कहना चाहिये । इस प्रकार वैदिक वर्णन होचुना; अब इसी वृक्ष का दूलरे प्रकार से, अर्थात् लाल्यशान्त्र के अनुसार, वर्णन करते हैं- (२) नीचे और जपर नी उसकी ज्ञाताएं फैली हुई हैं कि जो (सरव आदि तीनों) गुणों से पनी हुई है और जिनले (राब्द-स्पर्श-रूप-रल और गन्धरूपी) विषयों क अंकुर फूटेजुए हैं। एवं अन्त में कन का रूप पानेवाज्ञी उसी जड़ें नीचे ननुब- लोकन नी बढ़ती रहती-गहरी चली गई हैं। i [गीतारहस्य के प्राइवे प्रकरण (पृ. १७) में विस्तार सहित निरूपण कर दिया है कि साल्वशान्त्र के अनुसार प्रकृति और पुरुष यही दो मूल वन हैं। और नत्र पुरुष के आगे त्रिगुणात्मक प्रकृति अपना ताना-बाना फैलाने लगती है, तब महत् आदि तेईस तस्व उत्पन्न होते हैं, और उनसे यह ब्रह्माण्ड वृत्र बन जाता है। परनु वेडान्वज्ञान की दृष्टि से प्रति स्वतन्त्र नहीं है, वह परमे- श्वर काही एक अंश है, अत: त्रिगुणात्मक प्रकृति के इस फैलाव को स्वन्त्र वृतन मान कर यह सिद्धान्त किया है कि ये शालाएँ 'बमूल' पीपल की ही होव इस सिद्धान्त के अनुसार छ निराले स्वयं का वर्णन इस प्रकार किया है कि पहले लोकने वर्णित वैदिक अधशास' वृतं की "त्रिगुणों से पल्ली हुई " शास्त्रार न केवल नीचे' ही प्रत्युत जपर' मी फैली हुई हैं। और इसमें कर्मविपायनिया का धागा नी अन्त में पिरो दिया है । अनुगीतावाले ब्रह्मवृक्ष के वर्णन में केवल साल्यशास्त्र के चौबीच तत्वों का ही ब्रह्मवृक्ष बत लाया गया है। उसमें इस वृक्ष के वैदिक और साल्य वर्णनों का मेल नहीं मिलावा गया है (देतो ममा, अश्व.३५. २२, २३, और गीतार. पृ. 1)पितु गीता में ऐसा नहीं किया देश्य सृष्टिल्प वृक्ष के नाते से वैड़ों पाये जानेबाने परमे. श्वर के वर्णन का, और सांपशानांक प्रकृति के बिस्तर या ब्रह्माण्डवृक्ष के वर्णन