८०८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । 58 यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् । स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।। १९॥ इति गुह्यतमं शास्त्रमिन्मुक्तं मयान्य । एतद्बुवा बुद्धिमान् स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥ २० ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशाख्ने श्रीकृष्णार्जुन- संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पंचदशोऽध्यायः ॥ १५॥ ज्ञान-विज्ञान प्रकरण का अन्तिम निष्कर्ष यह है कि जिसने जगत् की इस पुकता को जान लिया कि " सब भूतों में पुरु आत्मा है" (गी. ६. २९)और जिसके मन में यह पहचान जिन्दगी भर के लिये स्थिर हो गई (वेस्.४. १. १२ गी...६), वह कर्मयोग का आचरण करते करते ही परमेश्वर की प्राति कर लेता है। क्रम न करने पर केवल परमेश्वर-मक्कि से भी मोक्ष मिल जाता है। परन्तु गीता के ज्ञान-विज्ञान-निरूपण का यह तात्पर्य नहीं है । सातवें अध्याय के आरम्म में ही कह दिया है कि ज्ञान-विज्ञान के निरूपण का आरम्म यही दिखलाने के लिये किया गया है कि ज्ञान से अथवा भक्ति से शुद्ध हुई निकाम बुद्धि के द्वारा संसार के सभी कर्म करना चाहिये और इन्हें करते हुए ही मोक्ष मिलता है। अब बत- लाते है कि इसे जान लेने से क्या फल मिलता है। (१८) हे भारत! इस प्रकार विना मोह के जो मुझे ही पुरुषोत्तम समझता है, वह सर्वज्ञ होकर सर्दभाव से मुझे ही भजता है। (२०) हे निष्पाप मारत! यह गुह्य से भी गुह्य शास्त्र मैंने बतलाया है। इसे जान कर ( मनुष्य ) बुद्धिमान् अथात् बुद्ध या नानकार और कृतकृत्य हो जावेगा। [यहाँ बुद्धिमान् का ही 'बुद्ध अर्थात् जानकार' अर्थ है क्योंकि भारत (शां. २४८. ११) में इसी अर्थ में 'बुद्ध' और ' कृतकृत्य ' शब्द आये हैं। महाभारत में 'बुद्ध' शब्द का रूढार्थ 'बुदावतार ' कहीं भी नहीं आया है। देखो गीतार. परि.पु. ५६.] इस प्रकार श्रीभगवान् के गाये हुए यात कई हुए उपनिषद् में, ब्रह्मविद्यान्त- गत योग-अर्थात् कर्मयोग-शास्त्रविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, पुरू- षोत्तमयोग नामक पन्द्रहवाँ अध्याय समाप्त हुना।
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