गीता, अनुवाद और टिप्पणी १८ अध्याय। करणं कर्म कतति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥ १८॥ मानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः। प्रोच्यत गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥ १९ ॥ कोई कर्म यद्यपि लाफिक टि से विपरीत भले ही दिखलाई दे तो भी न्यायतः कहना पड़ता है कि उसका वीज शुन्द दी होगा; फलतः उस काम के लिये फिर उस शुद्ध बुद्धिवान मनुष्य को जबाबदार न समझना चाहिये। सत्र वे श्लोक का यही तात्पर्य है । स्थितप्रज्ञ, अर्थात् शुद्ध बुद्धिवाले, मनुष्य की निष्पापता के इस ताप का वर्णन उपनिषदों में भी है (कौपी. ३. १ और पञ्च- दशी. ११.१६ घार १७ देखो) गीतारहस्य के यारहवें प्रकरण (पृ.३७०- 1३७४) में इस विषय का पूर्ण विवचन किया गया है, इसलिये यहाँ पर उसके अधिक विमार की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार अर्जुन के प्रश्न करने पर संन्यास भीर त्याग शब्दों के अर्थ की मीमांसा द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि स्पधर्मानुसार जो कम प्राप्त होते जाप, उन्हें अहसारद्धि और फलाशा छोड़ फर करते रहना ही साधिक पयवा सच्चा त्याग है, कमी को छोड़ बैठना सम्बा त्याग नहीं है। भय सत्र अध्याय में कर्म के सात्विक भादि भेदों का जो विचार भारम्भ किया गया था, उसी को यहाँ कर्मयोग की ष्टि से पूरा करते हैं। (14) कर्मचौदना तीन प्रकार की है-ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता तथा कर्मसंग्रह तीन प्रकार का है-करण, कर्म और कर्ता । (१६) गुणसंख्यानशाख में अर्थात कापिजसांख्यशास्त्र में कहा है कि ज्ञान,कर्म और कत्ता (प्रत्येक साव, रज और तम-इन तीन) गुणों के भेदों से तीन तीन प्रकार के हैं। उन (प्रकारों) को ज्यों के त्यों (तुझे बतलाता हूँ) सुन। [कर्मचोदना और कर्मसंग्रह परिभाषिक शब्द हैं । इन्द्रियों के द्वारा कोई भी कर्म होने के पूर्व, मन से उसका निश्चय करना पड़ता है । अतएव इस मानसिक विचार को 'कर्मचोदना' अर्थात् कर्म करने की प्राथमिक प्रेरणा कहते हैं। और, वह स्वभावतः ज्ञान, ज्ञेय एवं ज्ञाता के रूप से तीन प्रकार की होती है। एक उदाहरण लीजिये,-प्रत्यक्ष घड़ा बनाने के पूर्व कुल्हार (शाता) अपने मन से निश्चय करता है कि मुझे अमुक पात (ज्ञेय) करना 1ई, और वह प्रमुक रीति से (ज्ञान) होगी। यह क्रिया कर्मचोदना हुई। इस प्रकार से मन का निश्चय हो जाने पर वह कुम्हार (कर्ता) मिट्टी, चाक इत्यादि साधन (फरण) इकठे कर प्रत्यक्ष घड़ा (कर्म) तैयार करता है। यह कर्मसंग्रह हुमा । कुम्हार का कर्म घट है तो; पर उसी को मिट्टी का. कार्य भी कहते हैं। इससे मालूम होगा कि कर्मचोदना शब्द से मानसिक अथवा भन्तःकरण की क्रिया का बोध होता है और फर्मसंग्रह शब्द से उसी मानसिक किया की जोड़ की यायक्रियाओं का बोध होता है। किसी भी कर्म का पूर्ण गी.र१०५
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