पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८७४

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी- १८ अध्याय । ५१५ नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम् । अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥ २३ ॥ यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः । क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥२४॥ अनुवंधं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् । मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५॥ जय यह सात्विक ज्ञान मन में भली भाँति प्रतिविम्मित हो जाता है, लन मनुष्य के देह-स्वभाव पर उसके कुछ परिणाम होते हैं। इन्हीं परिणामों का वर्णन देवी-सम्मत्ति गुणवर्णन के नाम से सोलहवें अध्याय के प्रारम्भ में किया गया है। और, तेरहवें अध्याय (१३. ७-११) में ऐसे देह-स्वभाव का नाम ही ज्ञान यतमाया है। इससे जान पड़ता है कि 'ज्ञान' शब्द से (७) एकी- करण की मानसिक क्रिया की पूर्णता, तथा (२) उस पूर्णता का देहस्वभाव पर होनेवाला परिणाम, ये दोनों अर्थ गीता में विवाहित हैं। अतः बीसवें श्लोक में वर्णित ज्ञान का लक्षण यद्यपि पावतः मानसिक क्रियात्मक दिखाई देता है, तथापि उसी में इस ज्ञान के कारण देहस्वभाव पर होनेवाले परिणाम का भी समावेश करना चाहिये। यह घात गीतारहस्य के नवे प्रकरण के अन्त (पृ. १२४७-२४८) में स्पष्ट कर दी गई है। अस्तु ज्ञान के भेद हो चुके । भव कर्म के भेद बतलाये जाते हैं- (२३) फज-प्राति की इच्छा न करनेवाला मनुष्य, (मन में ) न तो प्रेम और म द्वैप रख कर, बिना आसक्ति के (स्वधर्मानुसार) जो नियत अर्थात नियुक्त किया दुमा कर्म करता है, उस (कर्म) को सात्विक कहते हैं । (२४) परन्तु काम अर्थात् समाशा की इच्छा रखनेवाला अथवा अहसार पुद्धि का (मनुष्य) बड़े परिश्रम से जो कर्म करता है, उसे राजस कहते हैं। (२५) तामस कर्म वह है कि जो मोह से, पिना इन बातों का विचार किये प्रारम्भ किया जाता है, कि अनुबन्धक अर्थात् मागे क्या होगा पौरुप यानी अपना सामथ्र्य कितना है और (होनहार में) नाश अपवर हिंसा होगी या नहीं। [इन तीन भाँति के कर्मों में सभी प्रकार के कर्मों का समावेश हो जाता है। निष्काम कर्म को ही साविक अथवा उत्तम क्यों कहा है, इसका विवेचन गीतारहस्य के ग्यारहवें प्रकरण में किया गया है, उसे देखो और भकर्म भी सचमुच यही है (गीता. ४. १६ पर हमारी टिप्पणी देखो) गीता का सिद्धास हिकि कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है, अतः कर्म के उक्त लक्षणों का वर्णन करते समय पार बार कर्ता की बुद्धि का ग्ल्लेख किया गया है। स्मरण रहे कि कर्म का साविकपन या तामसपन केवल उसके बारा परिणाम से निश्चित नहीं किया गया है (देखो गीतार. पृ.३८०-३८1)। इसी प्रकार २५ वें श्लोक से यह भी