पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८८६

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी- १८ अध्याय सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः। टोऽसि मै ढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ।। ६४ ॥ मन्मना भव मद्भक्तो मधाजी मां नमस्कुरु । मामेवैयसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ १५ ॥ सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिन्यामि मा शुचः ॥६६॥ यही महत्वपूर्ण भेद है। भगवान् ने तीसरे ही अध्याय में कह दिया है कि “सभी प्राणी अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार चलते रहते हैं, वहीं निग्रह क्या करेगा?" (गी. ३. ३३)। ऐसी स्थिति में मोक्षशास्त्र अथवा नीतिशाख इतना उपदेश कर सकता है कि कर्म में प्रासक्ति मत रखो। इससे अधिक वह कुछ नहीं कह सकता । यह अध्यात्म-दृष्टि से विधार हुमा; परन्तु भक्ति कीष्टि से प्रकृति भी तो ईश्वर काही अंश है। अतः यही सिद्धान्त ६१वें और ६२ वें श्लोकों में ईश्वर को सारा कर्तृत्व सौंप कर यतलाया गया है। जगत् में जो कुछ व्यवहार हो रहे हैं उन्हें, परमेश्वर जैसे चाहता है वैसे करवा रहा है। इसलिये ज्ञानी मनुष्य को उचित है कि अधिकार बुद्धि चोड़ कर अपने आप को सर्वथा परमेश्वर के ही हवाले कर दे। ६३ वें श्लोक में भगवान् ने कहा है सही कि “जैसी तेरी इच्छा हो, वैसा कर, " परन्तु उसका अर्थ बहुत गम्भीर है। ज्ञान प्रयया भक्ति के द्वारा जहाँ बुद्धि साम्यावस्था में पहुंची, वहाँ फिर बुरी इच्छा बचने ही नहीं पाती । अतएव ऐसे ज्ञानी पुरुष का इच्छा-स्वातन्त्र्य ' (इच्छा की स्वाधीनता) उसे अथवा जगत् को कभी अहितकारक नहीं हो सकता। इसलिये उक्त श्लोक का ठीक ठीक भावार्य यह है कि “ ज्यों ही तू इस ज्ञान को समझ जेगा (विमृश्य), स्यों ही तु स्वयंप्रकाश हो जायगा और फिर (पहले से नहीं) तू अपनी इच्छा से जो कर्म करेगा, वही धर्य एवं प्रमाण होगा तथा स्थितप्रज्ञ की ऐसी अवस्था प्राप्त हो जाने पर तेरी इच्छा को रोकने की आवश्यकता ही न रहेगी। अस्तु, गीतारहस्य के १४ वें प्रकरण में हम दिखला जुके हैं कि गीता में ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को ही अधिक महत्व दिया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार अब सम्पूर्ण गीताशास्त्र का भक्तिप्रधान उपसंहार करते हैं-] (६४)(ब) अन्त की एक बात और सुन कि जो सब से गुह्य है । तू मुझे अत्यन्त प्यारा है, इसलिये मैं तेरे हित की बात कहता हूँ। (६५) मुममें अपना मन रख, मेरा भक्त हो, मेरा यजन कर और मेरी वन्दना कर, मैं तुमसे सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि ( इससे) तू मुझमें ही श्रा मिलेगा; (क्योंकि) तू मेरा प्यारा (भक्त) है । (६६) सब धर्मों को छोड़ कर तू केवल मेरी ही शरमा में प्राजा। मैं तुझ सब पारों से मुक्त करूंगा, सत!