पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/९४

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कर्मयोगशास्त्र। ५६ " समत्वं योग उच्यते " या " योगः कर्मसु कौशलम् "-तया उपर्युक्त "कर्म- योगेण योगिनाम्" इत्यादि गीता के वचनों से उस शंका का समाधान हो सकता है। इसलिये, अब यह निर्विवाद सिद्ध है, कि गीता में योग' शब्द प्रवृत्तिमार्ग अर्थात् कर्मयोग' के अर्थ ही में प्रयुक्त हुआ है। वैदिक धर्म- ग्रंथों की कौन कहे; यह 'योग' शब्द, पाली और संस्कृत भाषाओं के बौद्धधर्म- ग्रंथों में भी, इसी अर्थ में प्रयुक्त है। उदाहरणार्य, संवत ३३५ के लगभग लिखे गये मिलिंदप्रश्न नामक पाली-अन्य में पुख्ययोगो' ( पूर्वयोग) शब्द आया है और वहीं उसका अर्थ 'पुब्बकम्म ' (पूर्वकर्म ) किया गया है (मि. प्र. १.४.)। इसी तरह अश्वघोप कचिकृत-जो शालिवाहन शक के प्रारंभ में हो गया है- 'बुद्धचरित' नामक संस्कृत काव्य के पहले सर्ग के पचासवें श्लोक में यह वर्णन है आचार्यकं योगविधी द्विजानामप्राप्तमन्यैर्जनको जगाम | 'अर्थात् " प्रामगों को योग-विधि की शिक्षा देने में राजा जनक आचार्य (उपदेष्टा) हो गये, इनके पहले यह प्राचार्यत्व किसी को भी प्राप्त नहीं हुआ था । यहाँ पर 'योग-विधि' का अर्थ निष्काम कर्मयोग की विधि ही समझना चाहिये क्योंकि गीता आदि अनेक ग्रन्थ मुक्त कंठ से कह रहे हैं कि जनकजी के वर्ताव का यही रहस्य है और अश्वघोष ने अपने बुद्धचरित (६. १६. और २० ) में यह दिखलाने ही के लिये कि “ गृहस्थाश्रम में रह कर भी मोक्ष की प्राप्ति कैसे की जा सकती है " जनक का उदाहरण दिया है। जनक के दिखलाये हुए मार्ग का नाम ' योग है और यह बात बौद्धधर्म-ग्रन्थों से भी सिन्छ होती है, इसलिये गीता के योग' शब्द का भी यही अर्थ लगाना चाहिये; क्योंकि गीता के कथनानुसार (गी. ३. २०) जनक का ही- मार्ग उसमें प्रतिपादित किया गया है। सांख्य और योगमार्ग के विषय में अधिक विचार आगे किया जायगा । प्रस्तुत प्रश्न यही है कि गीता में योग ' शब्द का उपयोग किस अर्थ में किया गया है। जब एक बार यह सिद्ध हो गया कि गीता में 'योग' का प्रधान अर्थ कर्म- योग और योगी' का प्रधान अर्थ कर्मयोगी है, तो फिर यह कहने की आवश्य- कता नहीं कि भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय क्या है। स्वयं भगवान् अपने उपदेश को योग' कहते हैं (गी. ४. १-३); यल्कि छठवें (६. ३३) अध्याय में अर्जुन ने और गीता के अंतिम उपसंहार (१८.७५) में संजय ने भी गीता के उपदेश को 'योग' ही कहा है । इसी तरह गीता के प्रत्येक अध्याय के अन्त में, जो अध्याय-समाति-दर्शक संकल्प हैं उनमें भी साफ साफ कह दिया है कि गीता का मुख्य प्रतिपाय विषय योगशास्त्र' है। परन्तु जान पड़ता है कि उक्त संकल्प के शब्दों के अर्थ पर किसी भी टीकाकार ने ध्यान नहीं दिया। प्रारंभ के दो पदों "श्रीमद्भगवद्गीतासु उपानिपत्सु " के बाद इस संकल्प में दो शब्द “ब्रह्मवियायां योगशारो" और भी जोड़े गये हैं। पहले दो शब्दों का अर्थ है-"भगवान् से गाये गये उपानिपद में" और पिछले दो शब्दों का अर्थ " महाविद्या का योगशाला