पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/९६

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कर्मयोगशास्त्र। ६१ पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म इत्यादि शब्दों का उपयोग हुआ करता है। कार्य-अकार्य, कर्तव्य-अकर्तव्य, न्याय्य-अन्याय्य इत्यादि शब्दों का भी अर्थ वैसा ही होता है। तथापि इन शब्दों का उपयोग करनेवालों का सृष्टि-रचना विपयक मत भिन्न भिन्न होने के कारण “ कर्मयोग "-शास के निरूपणा के पंथ भी भित्र भित हो गये हैं। किसी भी शाला को लीजिये, उसके विषयों की चर्चा साधारणतः तीन प्रकार से की जाती है । (१) इस जड़ सृष्टि के पदार्थ ठीक वैसे ही हैं जैसे कि वे हमारी इन्द्रियों को गीचर होते हैं। इसके पर उनमें और कुछ नहीं है। इस टि से उनके विषय में विचार करने की एक पद्धति है जिसे आधिगोतिका विवेचन कहते हैं। उदाहरणार्थ, सूर्य को देवता न मान कर केवल पाचभौतिक जड़ पदार्थों का एक गोला मान; और उप्णता, प्रकाश, वजन, दूरी और आकर्षण इत्यादि उसके केवल गुण- धर्मों ही की परीक्षा करें तो उसे सूर्य का आधिभौतिक विवेचन कहेंगे । दूसरा उदाहरणा पेड़ का लीजिये । उसका विचार न करके. कि पेड़ के पत्ते निकलना. फूलना, फलना आदि क्रियाएँ किस अंतर्गत शक्ति के द्वारा होती हैं, जय केवल बाहरी दृष्टि से विचार किया जाता है कि जमीन में बीज बोने से अंकुर फूटते हैं, फिर चे बढ़ते हैं और उसी के पत्ते, शाखा, फूल इत्यादि दृश्य विकार प्रगट होते हैं, तब उसे पेड़ का आधिभौतिक विवेचन कहते हैं। रसायनशास्त्र, पदार्थविज्ञानशासा, विद्युतशास्त्र इत्यादि आधुनिक शास्त्रों का विवेचन इसी ढंग का होता है। और तो क्या, आधिभौतिक पंडित यह भी माना करते हैं कि उक्त रीति से किसी वस्तु के दृश्य गुणों का विचार कर लेने पर उनका काम पूरा हो जाता है-सृष्टि के पदार्थों का इससे अधिक विचार करना निष्फल है। (२) उक्त पुष्टि को छोड़ कर इस बात का विचार किया जाता है कि, जड़ सृष्टि के पदार्थों के मूल में क्या है, क्या इन पदार्थों का व्यवहार केवल उनके गुण-धर्मों ही से होता है या उनके लिये किसी तत्व का आधार भी है। तब केवल थाधिभौतिक विवेचन से ही अपना काम नहीं चलता, हमको कुछ आगे पैर बढ़ाना पड़ता है। उदाहरणार्थ, जब हम यह मानते हैं कि, यह पाच- भौतिक सूर्य नामक एक देव का अधिष्ठान है और इसी के द्वारा इस अचेतन गोले (सूर्य) के सब व्यापार या व्यवहार होते रहते हैं, तब उसको उस विषय का आधिदैविक विवेचन कहते हैं। इस मत के अनुसार यह माना जाता है कि पेड़ में, पानी में, हवा में, अर्थात् सब पदार्थों में, अनेक देव हैं जो उन जड़ तथा सचेतन पदार्थों से भिन्न तो हैं, किन्तु उनके व्यवहारों को वही चलाते हैं। (३) परन्तु जब यह माना जाता है कि जड़ सृष्टि के हज़ारों जड़ पदार्थों में हजारों स्वतंत्र देवता नहीं है, किन्तु बाहरी सृष्टि के सब व्यवहारों को चलानेवाली, मनुष्य के शरीर में प्रात्सत्वरूप से रहनेवाली, और मनुष्य को सारी सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करा देनेवाली एक ही चित् शक्ति है जो कि इंद्रियातीत है और जिसके द्वारा ही इस जगत् का सारा व्यवहार चल रहा है। तब उस