१४२ गीता-हृदय जन्मोमें कोशिश करते-करते ज्ञान हासिल होता है, समस्त ससारमे वासुदेव बुद्धि या परमात्मज्ञान होता है। उसीके बाद ब्रह्मप्राप्ति होती है। ऐसे महात्मा लोग अत्यन्त अलभ्य है।" -"वहूना जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मा प्रपद्यते । वासुदेव सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ ॥" मगर तीसरे श्लोकमें तो और भी कठिनाईका वर्णन इस मार्गके सिलसिले में मिलता है। वहां तो कहा है कि "हजारो लाखोमें एकाध आदमी ही योगी होनेके लिये यत्न करते है और ऐसे लाखोमें विरला ही कोई मुझे-परमात्माको-ठोक- ठीक जान पाता है"--"मनुष्याणा सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धाना कश्चिन्मा वेत्ति तत्त्वत ॥" यदि इन तीनो वचनोको मिलाके देखें तो पता चलता है कि गीताका योग नियम तो हो सकता है नहीं। यह तो इतना कठिन है कि असभव- प्राय है। कठोपनिषत्में इसी सम्बन्धके प्रश्नके उत्तरमें यमने नचिकेतासे कहा था कि "नचिकेता, मौतकी बात मत पूछो-जीते जी मर जानेकी बात न पूछो"-"नचिकेतो मरण माऽनुप्राक्षी” (१।१।२५)। उन- ने यह भी कह दिया था कि “इस मार्गपर चलना क्या है छुरेकी तीखी धारपर चलना समझो, जो असभव जैसी बात है । इसीलिये जानकार लोगोने कहा है कि यह मार्ग दुर्गम है"--"क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति” (१।३।१४)। हमने भी योगके सम्बन्धमें जो कुछ पहले कहा है उससे भी निस्सन्देह यही बात पक्की हो गई है। तृतीय अध्यायके “यस्त्वात्मरतिरेव” श्लोकका बार-बार उल्लेख तो प्राया है। मगर इस सम्वन्धमें उसे मनन करना चाहिये । चौथे अध्यायके १६-२३ श्लोकोको भी गौरसे पढना होगा। पांचवेंके ७-२१ श्लोक भी इस सम्बन्धमें बहुत महत्त्व रखते है। छठे अध्यायके ७-३२ श्लोकोमें जितनी बातें कही गई है उनसे भी इस विषयपर पर्याप्त प्रकाश पडता है। आठवेंके ८-१६ श्लोक भी विचारणीय है । दूसरे अध्यायके अन्तमें जो .
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