पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१५३

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योग और माक्संवाद १४५ कुरान, बाइबिल भी विदाई देनी हो तो क्या बुरा है ? मामूली जमीन-जायदाद, रुपये- पैसे और कारबारके लिये भी तो रोज ही धर्म और ईश्वरको धकियाते ही है, गर्दनियाँ देते ही है। कचहरियोमे, सर्वेसेटलमेन्टके समय और खरीद-विक्रीमे तो रोज ही शालग्राम, गगा-तुलसी, वेद, उठाके झूठो कसमे खाते ही है। क्या इतनेपर भी धर्म और ईश्वर रही गये? फाटका और सट्टेबाजीमे तो कोई भी जाल-फरेब बच पाता नही और आजकलका व्यापार तो केवल जूा ही है। फिर भी क्या हम लोगोने धर्म और ईश्वरको भूमडलमे कही भी रख' छोडा है ? यदि इतनेपर भी हममे कोई ऐसा कहनेकी धृष्टता करे कि वह धर्मवादी और ईश्वरवादी है तो यह परले दर्जेका धोका है, आत्मप्रवचना और लोकवचन है । फिर हम साफ ही क्यो न कह दे कि हम धर्म-वर्म नही मानते ? इसमे ईमानदारी तो है। उसमे तो यह भी नही है । इसका परिणाम भी सुन्दर होगा। हम धर्मके ठेकेदारोसे बाल-बाल -साफ-साफ-बच जायेंगे और अपने हककी लडाई बेखटके अच्छी तरह चलाके श्रेणी-विहीन समाज जल्दसे जल्द स्थापित कर सकेंगे। धर्म माननेकी दशामे तो दुबिधेमे- रमखुदैयामे-रह जानेके कारण कोई काम ठीक-ठोक कर पाते नही। न इधरके रह जाते है और न उधरके। परिणाम बहुत ही बुरा होता है । इसमें यह बात न होगी। कोई रुकावट तो होगी ही नही। मालदार-जमीदारो- का अन्तिम ब्रह्मास्त्र तो यही है और जब यही न रहा, तो उनकी तो कमर ही टूट जायगी और जल्दी ही धडामसे गिर पडेगे। इसलिये हमारी- शोषितो एव पीडितोकी-जीत शीघ्र ही होगी और अवश्य होगी। धर्मऔर ईश्वरके नामपर जो स्वर्ग, वैकुठ या बिहिश्त मिलनेवाला बताया जाता है वह एक तो अनिश्चित है । दूसरे उसका आँखो देखा प्रमाण तो है नही। तीसरे वह मिलेगा भी तो मरने के बाद। मगर इसका फल तो यहीपर प्रत्यक्ष स्वर्ग और वैकूठ है। इससे तो यहीपर आनन्द-समुद्रमे गोते लगाना है