कर्म और धर्म १७३ कुल तेरह अध्यायोमे यह धर्म पाया ही नहीं है। हालांकि इन्हीमे कर्मका दार्शनिक विवेचन खूब ही हुआ है। जिस समत्वरूप योगका वर्णन दूसरे अध्यायमे पाया जाता है और जो कर्मोकी कुजी है वही पांच, छ, नौ, बारह, तेरह और चौदह अध्यायोमे किसी न किसी रूपमे आया ही है । सोलह और सत्रह अध्याय तो गीताधर्मकी दृष्टिसे काफी महत्त्व रखते है, यह पहले कहो चुके है और विस्तारके साथ यह बात सिद्ध की जा चुकी भी है। अव रहे सिर्फ पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे और अठारहवे अध्याय । इन्हीमे धर्म शब्द कुल मिलाके केवल चौबीस बार अपने विशेप मानीमे प्रयुक्त हा मालूम पडता है। इसमे भी खूबी यह है कि पहले अध्यायके ४०वेमे तीन बार और तीसरेके ३५वेमे ही चार वार आया है। पहलेके तेंतालीसवेमे, दूसरेके बत्तीस-तीसमे, चौथेके सातवेमे और अठारहवे एकतीस-बत्तीस श्लोकोमे दो-दो बार आ जानेके कारण कुल उन्नीस वार तो सिर्फ पाठ ही श्लोकोमे आया है। शेष ५ श्लोकोमे ५ बार। इनमें भी पहले अध्यायके ४१ तथा ४४मे, दूसरेके ७वेम, चौथके ८वेमे और अठारहवेके ३४वेमे-इस प्रकार.एक-एक बारका बँटवारा है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कुछी जगहोमे वह पाया जाता है । इसमे भी खूबी यह है कि पहले अध्यायमे सात वार और दूसरेमे एक-कुल पाठ- वार तो खुद अर्जुनने ही यह शब्द कहा है । फलत वह तो गीताके सिद्धान्तके भीतर योही नहीं आता है । हाँ, सत्रह वार जो कृष्णने कहा है उसीपर कुछ भरोसा कर सकते है। मजा तो यह है कि दूसरे अध्यायके ३१ तथा ३३ श्लोकोमे जो कुल चार बार धर्म शब्द कृष्णने कहा है वह अर्जुनके ही कथनानुसार धर्मशास्त्र- वाला ही है, न कि कृष्णका खास । वहाँ तो अर्जुनकी ही बातके अनुसार ही उसे माकूल करते हैं। इसी प्रकार तीसरेके ३५वेमे जो चार बार आया है वह ठीक वैसा ही है जैसा कि अठारहवेके ४७वेका। क्योकि
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