पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१८०

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कर्म और धर्म १७५ ही धर्म एव अधर्म है-~ये विशेष पदार्थ है। मगर जब बत्तीसवे श्लोकपर विशेष ध्यान देते है तो यह पहेली सुलझ जाती है और पता चल जाता है कि धर्म-अधर्म शब्द भी व्यापक अर्थमे ही आये है। पहले-३१वे- श्लोकमें आम लोगोकी धारणाके ही अनुसार इन्हे अलग रखा है जरूर । मगर यह बात विवरणके ही रूपमे है, यह मानना ही पड़ेगा। वात असल यह है कि सात्त्विक, राजस और तामस बुद्धियोकी पहचान इन तीन-३०से ३२----श्लोकोमे बताई गई है। पहलेमे कहा गया है कि प्रवृत्ति-निवृत्ति या धर्म-अधर्म तथा कर्तव्य-अकर्त्तव्यको ठीक-ठीक वताना सात्त्विक बुद्धिका काम है । इसीसे उसकी पहचान होती है । फिर ३१वेमे कहा गया है कि इन चीजोको जो ठीक-ठीक न बताये-कभी ठोक बताये और कभी नही-वही राजस बुद्धि है। उसकी यही पहचान है । यहाँतक तो ठीक है। दोनोकी पहचानमे धर्म (प्रवृत्ति), अधर्म (निवृत्ति) तथा कार्य-अकार्यका उल्लेख आया है । मगर जव तामस बुद्धिका प्रसग ३२वे श्लोकमें आया है तो कार्य-अकार्यको छोडके केवल धर्म और अधर्मका ही उल्लेख है और कहा गया है कि जो अधर्मको ही धर्म माने और इस प्रकार सभी वाते उलटी ही वताये वही तामसी बुद्धि है । यदि 'पहला क्रम रखते तो कहते कि जो अधर्मको धर्म और अकार्यको कार्य समझे वही तामसी बुद्धि है । क्योकि उसका काम न तो ठीक-ठीक बताना है और न कुछ गडबड करना, किन्तु बिल्कुल ही उलटा बताना। मगर यहाँ कार्य-अकार्यको छोडके केवल धर्म-अधर्म का ही उल्लेख यही बताता है कि इन्हीके भीतर कार्य-अकार्य भी आ जाते है और ये शब्द व्यापक अर्थमे ही आये है । फलत कार्य-अकार्यका पहले दो श्लोकोमे उल्लेख योही विवरणके ही रूपमे है । ३४वे श्लोकका धर्म शब्द तो प्रचलित प्रणाली के ही अनुसार धर्म, अर्थ, काममे एकको कहता है और जव पहले ही उसका अर्थ ठीक हो गया तो यहाँ दूसरा क्या होगा ?