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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१८६

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नकाब और नकाबपोश १८१ तथापि २७, 1 कुछ ऐसा ही कहा है। हालाँकि "समलोष्ठाश्मकाञ्चन"का व्यापक भाव माना जाता है जो आगे बताया जायगा। यही बात उस अध्यायके ३२, ३३ श्लोकोमे भी है। क्योकि ३२वेमे “सम पश्यति" लिखा गया है और उसीका उल्लेख ३३वेमे है। यद्यपि तेरहवेके हवे श्लोकमे यह बात इतनी स्पष्ट नहीं है और उसका दूसरा आशय भी सभव है; २८-दो-श्लोकोमे ‘पश्यति' एव ‘पश्यन्' शब्दोके द्वारा उसे ज्ञान ही बताया है। बस। नकाब और नकाबपोश इसका आशय यह है कि जिस तरह स्वाग बनानेवालेकी बाहरी वेशभूषाके रहते हुए भी समझदार आदमी उससे धोकेमे नही पडता है; किन्तु असली अादमीको पहचानता और देखता रहता है, ठीक यही बात यहाँ भी है । ससारके पदार्थोका जो बाहरी रूप नजर आता है उसे विवेकी या गीताका योगी एकमात्र नट, नर्तक या स्वाँग बनानेवालेकी बाहरी वेशभूषा ही मानता है। इसीलिये इन सभी बाहरी आकारोके भीतर या पीछे किसी ऐसी अखड, एकरस, निर्विकार-सम-वस्तुको देखता है जो उसकी अपनी आत्मा या ब्रह्म ही है। उसे समस्त दृश्य भौतिक ससार उसी आत्मा या ब्रह्मकी नटलीला मात्र ही बराबर दीखता है। वह तो इस नटलीलाकी भोर भी दृष्टि न करके उसी सम या एक रस पदार्थको ही देखता है । यह जो बाहरी पर्दा या नकाब है उसे वह उतार फेकता है और पर्दानशीन या नकाबपोशको हूबहू देखता रहता है । नरसी मेहता एक ज्ञानी भक्त हो गये है। उनकी कथा बहुत प्रसिद्ध है। कहते है कि वह एक बार कहीसे आटा और घी माँग लाये। फिर धीको अलग किसी पात्रमे रखके कुछ दूर पानीके पास आटा गूंधके रोटी पकाने लगे। जब रोटी तैयार हो गई तो सोचा कि घी लगाके भगवानको .