यज्ञचक्र २०१ है कि “यथाभिमतध्यानाद्वा" (११३६)। इसके भाष्यमे व्यासने लिखा है कि “यदेवाभिमत तदेव ध्यायेत् । तत्र लब्धस्थितिकमन्यत्रापि स्थिति- पद लभते"-"जिसीमे मन लगे उसीका ध्यान करे। जब उसमे मन जमते-जमते स्थिर होने लगेगा तो उससे हटाके दूसरेमे भी स्थिर किया जा सकता है ।" दूसरी बात यह है कि धर्म तो श्रद्धाकी ही चीज है, यह पहले ही कहा जा चुका है। वह न छोटा है न बडा, और न ऊँचा है न नीचा। वह कैसा है यह सब कुछ निर्भर करता है इस बातपर कि उसमे हमारी श्रद्धा कैसी है, हमारे दिल-दिमाग, हमारी जबान और हमारे हाथ-पांवोमे-इन चारोमे-सामञ्जस्य कहाँतक है और हम सच्चे तथा ईमानदार कहाँतक है। इसीलिये यह सामञ्जस्य पूर्ण न होनेके कारण ही कमअक्ल लोगोके कर्मोंको तुच्छ फलवाला कहा है “अन्तवत्तु फल तेषा तद्भवत्यल्पमेधसाम्" (७।२३) । लेकिन जिनका सामञ्जस्य पूरा हो गया है उनके लिये कहा है कि वे भगवान रूप ही है-“मद्भक्ता यान्ति मामपि" (७।२३ । इस अध्यायके अन्तके ३०वे श्लोकमे अधियज्ञ'- के रूपमे यज्ञका नाम लेकर प्रश्न किया है कि वह क्या है, कौन है ? अधि- यज्ञ आदिकी बात हम स्वतत्र रूपसे आगे लिखेगे आठवें अध्यायके तो प्रारभमे ही उसी अधियज्ञके बारेमे दूसरे ही श्लोकमें प्रश्न किया गया है कि वह है कौनसा पदार्थ ? फिर इसीका उत्तर चौथे श्लोकमे आया है कि भगवान ही इस शरीरके भीतर अधियज्ञ है- "अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृता वर।" मगर इससे पूर्वके तीसरे श्लोकमें कर्म किसे कहते है, पूर्वके इस प्रश्नका जो उत्तर दिया गया है कि “पदार्थों के उत्पादन और पालनका कारण जो त्याग या विसर्जन है वही कर्म कहा जाता है"--"भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसज्ञितः", वह भी यज्ञका ही निरूपण है । क्योकि जैसा कि कह चुके है, तीसरे अध्यायमें तो वृष्टि आदिके द्वारा यज्ञका यही काम कहा ही गया है। इसी अध्यायके
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