पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२२१

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अन्य मतवाद २१६ अन्य मतवाद कुछ लोगोका खयाल है कि इन्ही आधिभौतिक, आधिदैवत एव आध्यात्मिक-तीनो-पक्षोका जिक्र गीतामें किया गया है। उनके मतसे गीताका यही कहना है कि हमे इन सभी पक्षोको जानना चाहिये । जिन्हें मुक्ति लेना है और जन्म-मरणसे छुटकारा पाना है उन्हे इन सभी पक्षोका मन्थन करना ही होगा। वे खामखा इन सबोका मथन करते है । सातवे अध्यायके अन्तके जिन दो श्लोकोमे ये बाते कही गई है और इसीलिये आठवेके शुरूमें इनके बारेमे पूछनेका मौका अर्जुनको मिल गया है, उनमे पहले यानी २६वे श्लोकमे तो उनके मतसे कुछ ऐसा ही लिखा भी गया है। वह श्लोक यो है, "जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। ते ब्रह्म तद्विदु कृत्स्नमध्यात्म कर्म चाखिलम् ॥” इसका अर्थ यह है कि “जो लोग भगवानका आश्रय लेकर जन्म, मरणादिसे छुट- कारा पानेकी कोशिश करते है वे उस ब्रह्मको पूरा-पूरा जान लेते है, सभी कर्मोको जान जाते है और अध्यात्म आदिको भी जानते है ।" इससे वे लोग अपना खयाल सही साबित करते है। मंगर बात दरअसल ऐसी है नही । वस्तुअोके विवेचनके उक्त तीन तरीके है सही । इन्हे लोग अपनी-अपनी रुचि एव प्रवृत्तिके अनुसार ही अपनाते भी है। मगर यहाँ उन तरीको तथा प्रणालियोसे मतलब हर्गिज है नहीं। यदि इन श्लोकोसे पहलेके सिर्फ सातवे अध्यायके- ही श्लोकोपर गौर किया जाय तो साफ मालूम हो जाता है कि आत्मा- परमात्माकी एकता के ज्ञान का ही वह प्रसग है । इसीलिये वही बात किसी न किसी रूपमें कई प्रकारसे कही गई है। १६-१६ श्लोकोमे तो भक्तोके चार भेदोको गिनाके ज्ञानीको ही चौथा माना है और कहा है कि "ज्ञानी तो मेरी-भगवानको-आत्मा ही है"-"ज्ञानी त्वात्मैव