पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२२३

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अन्य मतवाद २२१ उनमे आधिभौतिक आदि विवेचनोपर जोर दिया गया है या ऐसे विवेचनोकी जानकारी अवश्य प्राप्तव्य बताई गई है ? इसके सिवाय उक्त तीन वातोके अलावे ब्रह्म और कर्मकी जानकारी- की भी तो वात वही लिखी है । शका भी इन दोनो हीके बारेमे की गई है। उत्तर भी दिया गया है। भला अधियज्ञको तो उन्ही तीनोके साथ जैसे-तैसे जोडके वे लोग पार हो जाते है । मगर मरनेके समय भगवानकी जानकारी कैसे होती है, यह भी तो एक प्रश्न है। पता नही वे लोग इसे किस पक्षमे डालते है। ऐसा तो कोई पुराना पक्ष है नही। और अधियज्ञवाला पक्ष तो बिलकुल ही नया है। फिर पुरानोके साथ इसका मेल कैसे होता है ? खूबी तो यह है कि उनने 'अधिदेह' नामका एक दूसरा भी पक्ष यहीपर खड़ा कर दिया है और यह ऐसा है कि “न भूतो न भविष्यति ।" यदि वे लोग यह समझ पाते कि अध्यात्म शब्दमे जो आत्मा शब्द है वह देहके ही मानीमे है और जहाँ-जहाँ यह शब्द छान्दोग्य, वृहदारण्यक आदि उपनिषदो या और जगह आया है इसी मानीमे आया है, तो शायद अधिदेहकी बात बोलनेकी हिम्मत ही न करते । ज्यादा तो नहीं, लेकिन हमारा उनसे यही अनुरोध है कि छान्दोग्यके पहले अध्याय- का दूसरा, खड वृहदारण्यकके पहले अध्यायके पाँचवे ब्राह्मणका २१वाँ मत्र तथा कौषीतकी उपनिषदके चौथे अध्यायके ६-१७ मत्रोको गौरसे पढ जाये। तब उन्हे पता लगेगा कि अध्यात्ममे जो आत्मा शब्द है वह शरीरका ही वाचक है या नहीं। लेकिन जब कर्म, ब्रह्म और मरण कालका ब्रह्मज्ञान किसी पुराने पक्षकी चीज नही है तो फिर अध्यात्म वगैरहको ही क्यो पुराने पक्षमे घसीटा जाय ? और इन पक्षोके जाननेसे लाभ ही क्या? किसी विश्व- विद्यालयकी न तो परीक्षा ही देनी है और न कोई उपाधि ही लेनी है। कोई पुस्तक भी नहीं लिखनी है कि पाण्डित्यका प्रदर्शन किया जायगा 1