पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२३१

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अपना पक्ष २३१ "पुरुषश्चाधिदैवतम्"का अर्थ है कि "पुरुष ही अधिदैवत है।" गीताके "द्वाविमौ पुरुषो' श्लोककी बात कह चुके है। उसमे पुरुष आता है । उसीमे "क्षर सर्वाणि भूतानि” भी लिखा है, जिससे अधिभूतका अर्थ साफ होता है। मगर प्रकृति तथा जीव दोनोको ही पुरुष कहा गया है, यह बात याद रखनेकी है। उससे आगेके १७वे श्लोकमे "उत्तम पुरुष. शब्दोमे परमात्माको उत्तम पुरुष या दोनोसे ही पृथक् बताया है और १८३मे उसीको पुरुषोत्तम भी कहा है। इससे सिद्ध हो जाता है कि प्राधि- दैवत भी वही परमात्मा या पुरुष है और है वह सभीका स्वरूप “वासुदेव सर्वम् ।" अन्तमे "अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे"के द्वारा यह कह दिया है कि मै- 'परमात्मा ही सभी शरीरोके भीतर अधियज्ञ हूँ। जो दिनरात श्वास- प्रश्वास, खानपान, निद्रा, बोलचाल, विचार, ध्यान आदिके रूपमे “यत् करोऽषि यदश्नासि' (६।२७) के अनुसार अखड यज्ञ जारी है उससे भगवानकी ही पूजा हो रही है, यही इसका आशय है। यह पूजा सुलभ और सुकर है। फलत चिन्ताका अवसर रही नही जाता। सातवें अध्यायके अन्तिम-२६, ३०-श्लोकोमे जो कुछ कहा है वह भी हमारे पूर्वके बताये इसी अर्थका पोषक है। उन दोनो श्लोकोका पूरा विचार किया जाय तो यही अभिप्राय व्यक्त होता है कि जन्म-मरण आदिके सकटोसे छुटकारा सदाके लिये पा जानेके विचारसे जो लोग भगवानमे ही रमते और यही काम करते है वह उस पूर्ण ब्रह्मको भी जानते है, अध्यात्मको भी और सभी कर्मोंको भी। अधिभूत, अधिदैव तथा अधियज्ञके रूपमें भी भगवानको वही जानते है। इसीलिये पूर्ण योगी होने के कारण मरण समयमे भी परमात्माको साक्षात् जान लेते है। दूसरे शब्दोमे इसका आशय यह है कि जो लोग अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ, अध्यात्म, ब्रह्म और कर्मको जानते है वही परमात्माको अन्तमे भी जानते - -