ईश्वरवाद २४१ परमाणुओका आना-जाना और पुरानीकी जगह नई चीजका वन जाना एक पहेली है यह तो मान चुके । अब जरा सोचे कि आखिर यह होता है क्यो और कैसे ? पुराने चावलोकी जगह नये क्यो बने ? वैसे ही परमाणु क्यो आये और उतने ही क्यो आये जितने निकले ? यदि कमी- वेशी भी हुई तो बहुत ही कम । गेहूँमे चावलके और चावलमे गेहूँ के क्यो नही आ गये ? गायमे भैसके और भैसमे गायके क्यो न घुसे ? आदमीमे पशुके तथा पशुमे आदमी के क्यो न प्रवेश पा सके ? मर्दमें औरतके और औरतमें मर्दके क्यो न चले आये ? वृक्षोमे पत्थरके और पत्थरोमे वृक्षोके क्यो न जुटे ? मूल्मे पडितोके तथा पडितोमे निरक्षरोके क्यो न लिपटे ? ऐसे प्रश्न तो हजार लाख हो सकते है, होते है । इन परमाणुओका वर्गीकरण कहाँ कैसे किया गया है ? यह काम कौन करता है ? जिसमे जरा भी गडबडी न हो, किन्तु सभी ठीक-ठीक अपनी-अपनी जगह जाय-आये यह पक्का प्रबन्ध क्यो, किसने, कैसे किया? इसमे कभी गडबड न हो इस बातका क्या प्रवन्ध है और कैसा है ? पर- माणुप्रोके कोषमें कमी-बेशी हो तो उसकी पूर्ति कैसे हो ? यदि यह माना जाय कि हरेक पदार्थसे निकलनेवाले परमाणु अपने सजातीयोके ही कोपमे जा मिलते हैं, तो प्रश्न होता है कि ऐसा क्यो होता है और उन्हे कौन, कहाँ, कैसे ले जाता है ? साथ ही यह भी प्रश्न होता है कि निकलनेवाले परमाणुप्रोकी जो हालत होती है वह तो कुछ निराली होती है, नकि कोषमे रहनेवालोकी ही जैसी। ऐसी दशामें उनके मिलनेसे वह कोष खिचडी वन जायगा या नहीं? नये चावलका भात भारी होता है और मीठा ज्यादा होता है, बनिस्वत पुराने चावलोके । इसलिये यह तो मानना ही होगा कि चावलके भी परमाणु सबके सब एक ही तरहके नहीं होते। ऐसी हालतमे चावलके परमाणुअोके भी कई प्रकारके कोष मानने ही होगे। अव यदि यह कहे कि नये चावलोके परमाणु पुनरपि वैसे ही नये चावलोमे जा मिलेगे
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