पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२६८

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- सृष्टि और प्रलय २७ और फिर वहीसे लौटते है । इनका यह चरखा रह-रहके चालू रहता है उससे आगे तो इनकी पहुँच है नहीं। वही इनकी अन्तिम दशा है। इसीलिये उसे प्रधान कहते है। प्रधान कहते है उसे जो सबके अन्तमे हो, आखिरमे हो। उसी प्रधानकी अपेक्षा इनको गुण कहते है। क्योकि इनकी आखिरी कृति वही है जिसे ये बनाते है अपनी प्रधानता, मुख्यताको गँवाके । जब इनकी क्रिया रही ही नहीं तो तने भले ही हो और आजाद भले ही रहे, फिर भी इनका पता कहाँ रहता है ? वही प्रधान फिर इन्ही गुणोके द्वारा अपना विस्तार करती है, सारा पसारा फैलाती । इसीसे उसे प्रकृति कहते है। प्रकृतिका अर्थ ही है कि जो खूब करे, ज्यादा फैले- फैलाये। कागज काटने के लिये जो मैशीन (Cutting machine) आजकल बनी है उसकी एक खूबी यह है कि हैडिल-चलानेवाला भाग-पकड़के मैशीन चलाते रहिये और उसकी तेज धार कागजतक पहुँचके उसे काट देगी। फिर ऊपर वापस भी चली जायगी। चलानेवालेका काम बराबर एक ही तरह चलता रहेगा। वह जरा भी इधर-उधर या उलट-फेर न करेगा। मगर उसी चलानेकी क्रिया-कर्म-के फलस्वरूप तेज धार ऊपरसे नीचे उतरके काटेगी और फिर ऊपर लौट जायगी। जितनी देरतक चलाते रहिये यही आना-जाना जारी रहेगा। सृष्टि और प्रलयकी भी यही हालत है। हमारे काम, कर्म (actions) ही सब कुछ करते है। उन्हीके करते कभी सृष्टि और कभी प्रलय होती है। ये दोनो चीजे परस्पर विरोधी है, जैसे मैशीनकी धारका नीचे आना और ऊपर जाना। मगर उन्ही-एक ही-कर्मोंके फलस्वरूप ये दोनोही होती है। कभी भी जीवोको विश्राम मिल जाता है जिसे प्रलय कहते है। गीताने उसीको 'कल्प- क्षय' (९।७) भी कहा है । उसे भूतसप्लव भी कहते है । फिर कभी सृष्टिका काम चालू हो जाता है। प्रलय शब्द भी गीता (१४१२) मे आया ही है।