पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२७०

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सृष्टि और प्रलय २७३ वार भी एकत्र हो जाते है । यही सिलसिला चलता रहता है। बस, यही हालत प्रलय या कल्पक्षयकी मानिये । इसीलिये हिसाब लगाके एक निश्चित समयके ही अन्तरपर इसका बारबार होना गीताने भी माना है। इस प्रलयको गीताने रात भी कहा है (८।१७-१६मे) । हाँ, तो उस प्रलयकी दशासे सृष्टिका श्रीगणेश कैसे होता है यह बात भी जरा देखे । गीताके (७।४-६), (१७-१९), (६१७-१०), (१३१५) तथा (१४।३-५) मे यह बात खास तौरसे लिखी गई है। यो छिट्टफुट्ट एकाध बात प्रसगसे कह देनेका तो कुछ कहना ही नही । पाठ और नौ अध्यायोमें कुछ ज्यादा प्रकाश डाला गया है । जीवोके कर्मोंकी मजबूरीसे उन्हे बार-बार जनमना-मरना पडता है । प्रलयके बाद भी यही चीज चालू रहती है, यही गोलमोल बाते वहाँ कही गई है। बेशक, चौदहवे अध्यायमें सृष्टिके श्रीगणेशकी खास बात कही गई है और बताया गया है कि यह किस तरह होती है। मगर इसे जब हम सातवे और तेरहवें अध्यायके वर्णनसे मिलाके तीनोका अर्थ एक साथ करते है और चौदहवेके समूचे गुण-वर्णनको भी उसीके साथ ध्यानमे रखते है तभी इस बातपर पूरा प्रकाश पडता है । चौदहवेके ५वे श्लोकमे कहा गया है कि "तीनों गुण प्रकृतिसे निकलते है"--"गुणा प्रकृतिसभवा ।" निकलनेका अर्थ तो कही चुके है कि साम्यावस्था छोडके अपनी विषम अवस्थामे-अपनी असली सूरतमे-आते है; न कि पैदा होते है । कैसे बाहर आते है यही बात उससे पहलेके दो श्लोकोमे माँके पेटसे बच्वेके बाहर आनेका दृष्टान्त देकर बताई गई है। उसीका विशेष विवरण सातवे एव तेरहवें अध्यायमें दिया गया है । यह तो पहले ही कह चुके है कि प्रधान या प्रकृति तो साम्यावस्था है, एक रसता है, अविभिन्नता (homogeneity) है। उसके विपरीत उस अवस्थाको भग करके ही सृष्टि होती है जिसमे अनेकता और विभिन्नता १८,