पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/२८१

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अद्वैतवाद २८५ असलमे वेदान्तका अद्वैतवाद परिणाम और विवर्त्तवादको मानता है। अद्वैतवादको विकासवाद या परिणामवादसे विरोध नहीं है, यदि उसकी जडमें विवर्त्तवाद हो । इसका मतलब यह है कि अद्वैतवादी मानते है कि यह दृश्य जगत् ब्रह्म या परमात्मा, जिसे ही आत्मा भी कहते है, मे आरोपित है, कल्पित है, यह कोई वास्तविक वस्तु है नही। इसकी कल्पना, इसका आरोप बह्ममे उसी तरह किया गया है जैसे रस्सीमें साँपकी कल्पना अंधेरेमे हो जाती है । या यो कहिये कि नीदकी दशामे मनुष्य अपना ही सर कटता देखता है, या कलकत्ता, दिल्ली आदिकी सफर करता है। यह आरोप ही तो है, कल्पना ही तो है । इसीको अध्यास भी कहते है। किसी पदार्थ मे एक दूसरे पदार्थ की झूठी कल्पना करने को ही अध्यास कहते है। रस्सीमें साँप तो है नही। मगर उसीकी कल्पना अँधेरेमें करते और डरके भागते है। सोनेके समय अपना सर तो कटता नही । फिर भी कटता नजर आता है। विस्तरपर घरमे पडे है । फिर कलकत्ता या दिल्ली कैसे चले गये ? मगर साफ ही मालूम होता है कि वहाँ गये है। भर पेट खाके पलगपर सोये है। मगर सपना देखते है कि भूखो दर-दर मारे फिरते है ! सुन्दर वस्त्र पहने सोये है । मगर नगे या चिथडे लपेटे जाने कहाँ-कहाँ भटकते मालूम होते है ! यही अध्यास है । इसीको भारोप, कल्पना आदि नाम देते है। इसे भ्रम या भ्रान्ति भी कहते है । मिथ्या ज्ञान और मिथ्या कल्पना भी इसको ही कहा है। अद्वैतवादी कहते है कि ब्रह्ममे इस समूचे ससारका-स्वर्ग-नर्कादि सभीके साथ-अध्यास है, आरोप है । जैसे सपनेमे सर कटना, भूखो चिथडे लपेटे मारे फिरना आदि सभी बाते मिथ्या है, झूठी है ; ठीक वैसे ही यह समूचे ससारका नजारा झूठा ही ब्रह्ममे दीख रहा है। इसमे तथ्यका लेश भी नहीं है । यह सरासर झूठा है, असत्य है । केवल ब्रह्म या आत्मा ही सत्य है । ब्रह्म और आत्मा तो एक हीके दो नाम है- "ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मवनापर ।"