असीम प्रेमका मार्ग ३०१ गीतामे कर्म शुरू करके ही सन्यासको आगे हासिल करते और उसे पक्का बनाते है । ऐसी हालतमे निषेधपक्ष उसके किस कामका है ? सो भी पहले ही ? वह तो अन्तमे खुदवखुद आई जाता है यदि उसका अवसर आये। वह खामखा आये ही यह हठ भी तो गीतामे नही है । जब ब्रह्मको अपनी आत्माका ही रूप मानते है तो अपना होनेसे कितना अलौकिक प्रेम उसमे होता है। दो रहनेसे तो फिर भी जुदाई रही गई यद्यपि वह उतनी दुखद नही है । इसीलिये प्रेममे-उसके साक्षात् प्रकट करनेमे, प्रकट होनेमे-~-कमी तो रही जाती है, बाधा तो रही जाती है। दोके बीचमे वह बँट जाता जो है-कभी इधर तो कभी उधर । यदि एक ओर पूरा जाय तो दूसरी ओर खाली | यदि इधर आये तो वह सूना दोनोकी चिन्तामे कही जम पाता नही । किसी एकको छोडना भी असभव है। यह बँटवारेकी पहेली बडी बीहड है, पेचीदा है। मगर है जरूर । देशकोश, गाँव, परिवार, घर, स्त्री; पुत्र, शरीर, इन्द्रियाँ, आत्मा वगैरहको देखे तो पता चलता है कि जो चीज अपने आपसे जितनी ही दूर पडती है उसमें प्रेमकी कमी उतनी ही होती है । दूरतक पहुँचनेमे समय और दिक्कत तो होती ही है और तॉना भी तो रहना ही चाहिये । नही तो स्रोत ही टूट जाये, सूख जाय और अपने आपसे ही अलग हो जायें। इसीलिये ज्यो-ज्यो नजदीक आइये, दिक्कत कम होती जाती है और ताँता टूटने या स्रोत सूखने का डर कम होता जाता है । मगर फिर भी रहता है कुछ न कुछ जरूर । इसीलिये जब ऐसा मौका आ जाय कि देश और गाँवमे एक हीको रख सकते है तो आमतौरसे देशको छोड़ देते है और गाँवको ही रख लेते है। प्रेमकी कमी-बेशीका यही सबूत है । इसी तरह हटते-हटते पुत्र, शरीर और इन्द्रियोतक चले जाते है। मगर आत्माकी मौज या आनन्दमे, उसके मजामे किरकिरी डालनेपर, या कमसे कम ऐसा मालूम होनेपर कि शरीर या इन्द्रियोके करते अात्माका-अपना-
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