सर्वत्र हमी हम और लोकसग्रह . ३०५ और गीताके इस महान् मार्गके छोड देनेका ही परिणाम है । वेदान्तके नामपर आज प्रचलित महान् पतनकी यही वजह है । जब कोई विधानात्मक चीज हई नही, तो फिर कुछ भी करने धरनेकी जरूरतही क्या है ? फलत वेदान्तवाद एव अद्वैतवादको इस पतनके गभीर गर्तसे निकालनेके लिए जगत्के मिथ्यात्व पर जोर देनेवाले निषेधात्मक पक्षकी ओर दृष्टि न करके हमे 'जगत् ब्रह्म ही है, हमारी आत्माही है', इस विधानात्मक पक्षकी ओर ही दृष्टि देना जरूरी है। इससे यही होगा कि हम चारो ओर अपनी ही आत्माको देखके उसके कल्याणार्थ ठीक वैसे ही उतावले हो पडेगे, दौड पडेगे जैसे अपने पॉबोमे फोडा-फुसी होने, खुद भूख-प्यास लगने या अपने पेटमे दर्द होनेपर उतावले और बेचैन होके प्रतीकारमे लग जाते है और जरा भी विलम्ब या आलस्य, अपना या गैरोका, बर्दाश्त कर नहीं सकते। गीता इसी दृष्टिपर जोर देती हुई कहती है कि “बहुत जन्मोमे लगा- तार यत्न करके, यह जो कुछ देखा-सुना जाता है सब भगवान ही है, ऐसा ज्ञान जिसे प्राप्त हो जाय वही इस ससारमे अत्यन्त दुर्लभ महात्मा है"- "बहूना जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मा प्रपद्यते । वासुदेव सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ" (७११९)। ऐसा अद्वैत तत्त्वज्ञानी दूसरेके सुख-दुःखको अपनेमे ही अनुभव करता है। यदि किसीको भी एक लाठी मारो तो उसकी चोट उसे ही लगती है। इसीलिये उसका हृदय द्रवीभूत होके दत्तचित्तताके साथ लोकसग्रहमे उसे दिनरात लग जानेको विवश कर देता है। इस बात- का कितना मार्मिक वर्णन गीताके छठे अध्यायके ये श्लोक करते है, "सर्वभूतस्थमात्मान सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन । यो मा पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति । तस्याह न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति । सर्वभूतस्थित यो मा भजत्येकत्व- मास्थित.। सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते। आत्मौपम्येन २०
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