पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३१

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कर्मके भेद १३ ठीक उसी तरह उस समय व्यक्तित्वको समस्त ससारसे अलग करने, मानने तथा देखनेमे मर्मान्तिक वेदना होती है। अगकी पुष्टिके लिये समस्त शरीरको ही पुष्ट करना जिस तरह अनिवार्य है वही हालत यहाँ भी हो जाती है । फलतः ऐसा ऊंचा उठा मनुष्य निजी तौरपर या व्यक्तिगत हानि-लाभका कभी खयाल भी नहीं कर सकता। वह ऐसी बातके लिये सर्वथा अयोग्य हो जाता है । अत दुनियाके सभी झगडे मिट जाते है। जिस तरह बहुत ही ऊँचे पर्वतकी चोटीपर खडा होके देखनेवालेको नीचेकी वडीसे बडी चीजे भी निहायत ही नन्हीसी लगती है और कभी-कभी तो दीखतक नहीं पडती है, ठीक वही हालत उसके नजरोमे व्यक्तित्व और अपनेपनकी हो जाती है। मगर यह हालत यकायक नहीं होती। इसमे भी सीढियाँ (stages) होती है और उन्हीसे होके इन्सान धीरे-धीरे ऊपर उठता हुअा आखिरी दशा (stage) मे पहुँच जाता है जहाँ सभी एक और समान हो जाते है--जहां वह अपनेको सबोसे और सबोको अपनेसे पृथक् देख नही सकता। यही है निर्वाण, मुक्ति या ब्राह्मी स्थिति । उस हालतमे पूर्णतया पहुंचनेके पहले जिन सीढियोसे होके गुजरना पडता है उनमे पहली वही है जिसे कर्मकी गणनामे तीसरी कह चुके है । उस तीसरी या इस पहलीमे जो कर्म किया जाता है उसे गीताने 'यज्ञार्थ' कर्म कहा है। "यज्ञार्थात्कर्म- णोऽन्यत्र" (३६), "एव प्रवर्तित चक्रम्” (३।१६), "यज्ञायाचरत कर्म" (४।२३) आदि श्लोकोमे यही बात है। यज्ञार्थका अर्थ है यज्ञके लिये और गीताका यह यज्ञ बहुत ही व्यापक है। इसमे दुनिया आ जाती है। परमात्मासे लेकर छोटी-बडी सभी चीजोका समावेश इसमे हो जाता है । गीताके चौथे अध्यायके २४से ३० श्लोकोमे यह वात स्पष्ट है और अन्यत्र भी। परमात्मा और ज्ञानको तो यज्ञ कहते ही है । मगर व्यष्टि और समष्टि-व्यक्ति और समुदाय--रूपसे ससारको