पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३२३

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"जायते वर्णसंकरः" ३२७ इससे वर्णों के निर्माणकी बुनियादी बातका पता चल गया और मालूम हो गया कि उनकी क्या जरूरत थी। आज तो ऐसा पतन हो गया है कि सारी चीजे धोखेकी टट्टी और मौरूसी बन गई है । ब्राह्मणादि बनने- का दावा तो अन्ध परम्पराकी चीज हो गई है। वर्गों में छोटे-बडेपनका भूत ऐसा घुस गया है और नीच-ऊँचकी बात हमारे दिमागमे इस कद्र घर कर गई है कि कुछ कहा नही जाता। ये निराधार बाते कहांसे कैसे घुस गई यह कहना मुश्किल है। मगर पतनके साथ ऐसा होता ही है यह निर्वि- वाद है। पहले तो विश्वामित्रादिके सम्बन्धमे इस नियमका अपवाद भी होता था। मगर अब तो नियम का मूल मिट्टीमे मिलाकर जव सारी बाते अन्धपरम्परा एव मूर्खताके ही आधार पर बनी है तो वह अपवाद भी जाता रहा । जैसा कि पहले कहा जा चुका है और अभी-अभी कहा है, वर्ण विभागके भीतर नीच-ऊच या छोटे-बडेकी तो बात कभी आई ही नहीं। यह तो दिल-दिमागकी बनावटके अनुसार स्वाभाविक प्रवृत्ति देखके ही सामाजिक कामोका बँटवारा मात्र था, जिससे समाजकी रक्षा और प्रगति निराबाध रूपसे उस जमानेमे हो सके जब आज जैसी परिस्थिति न थी। यही कारण है कि वर्णसकरको उस समय बहुत बुरा मानते थे। क्योकि किसी पेशे या वर्णकी मां और किसीके बापके सयोगसे जो सन्तान होगी वह साधारणत समाजकी प्रगतिमे सहायक हो सकती नही । अप- वाद स्वरूप कुछ लोगोमे भले ही कुछ खास बाते हो जायँ । मगर हमे यह न्नही भूलना चाहिये कि यह व्यवस्था लक्ष-लक्ष लोगोके लिये आम तौरसे थी और यह बात दूसरे ढगसे हो सकती न थी। सभी लोगोके लिए खास ढगकी व्यवस्थाका प्रवन्ध होना असभव था। क्योकि विभिन्न वर्गोंकी जोडी (Cross breeding)बडी ही कठिन चीज है यदि सफलता लानी हो । इसीलिये आम तौरसे उसे चला नही सकते । मगर जब सभी क्षत्रिय मर्द मर जाये तो आखिर होगा क्या? वर्णसकर तो होगा ही या ज्यादेसे