पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३३०

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३३४ गीता-हृदय परन्तु गीताके वारेमे ऐसा कह सकते नहीं। यह इतनी लोकप्रिय रही है कि इसमे एक शब्दका प्रक्षेप होना या मिलाना असभव हो गया है। तेरहवें अध्यायम एक श्लोक घुसेडनेकी कोशिश कभी किसीने की । जरूर । लेकिन वह सफल न हो सका। वैदिक मत्रो, ब्राह्मणो या प्रधान उपनिषदोमे जैसे कोई प्रक्षेप होना सभव न हुआ, वही हालत गीताकी भी रही है। मालूम होता है, उन्हीकी तरह इसे भी लोग जवानपर ही रखते थे। इसकी भी 'श्रुति' जैमी ही दशा रही है। प्रत्युत इसमें तो और भी विशेषता है कि वेदो और उपनिषदोको प्राय भूल जानेपर भी इसे लोग भूल न सके। अाज भी वैसा ही मानते है, पढते-लिखते है, कद्र करते है जैसा पहले करते थे। इसलिये यदि कभी किसी भी हालतमें इसमे एक भी शब्द या श्लोक जोडा जाता तो खामखा पकडा जाता, यह पक्की बात है। किन्तु "ऋषिभिर्वहुवा" श्लोकके बारेमे ऐसी पारणा किसीकी भी पाई नही जाती । यही कारण है कि सात या ज्यादा श्लोकोकी छोटी-छोटी गीताप्रोके थोडा-बहुत प्रचार होनेपर भी, ऐसी गीता नही पाई जाती जिसमे यह "ऋषिभिर्वहुधा" या ऐसे ही कुछ श्लोक न हो। भारतको ही महाभारत माननेवाले भी तो नही बताते कि कितने श्लोक इसमे पीछे जुटे थे। इसलिये यह सिद्धान्त मान्य नही हो सकता। एक वात और। छान्दोग्यके सातवें अध्यायमे कई वारं इतिहास, पुराण आदिका उल्लेख है। इसी प्रकार वृहदारण्यकके दूसरे अध्यायमें भी इतिहास, पुराण, सूत्र, व्याख्यान आदिका उल्लेख चौथे ब्राह्मणमे आया है । तो क्या इससे यह समझे कि सचमुच वेदान्तसूत्रोकी तरह इनसे पहले भी सूत्रग्रन्थ और आजके इतिहासो और पुराणोकी ही तरह पहले भी इतिहासपुराण थे ? क्या पहले भाष्य और व्याख्यान भी ऐसे ही थे यह माना जाय ? यह तो सभी मानते है कि पुराणोका समय बहुत इधरका है। सूत्रोका समय भी ब्राह्मण ग्रन्थोके बादका ही है। फिर यह कैसे .