उत्तरायण और दक्षिणायन ३५७ प्रत्येक क्षणमे निकलते ही रहते और उनकी जगह दूसरे आते रहते है । यह भी वात अच्छी तरह लिखी गई है कि ठीक समयपर ये परमाणु निकलते है, इनके कोष (stock) हजारो ढगके बने होते है, नये भी बनते जाते है, उनमेसे ही दूसरे परमाणुअोके चावल वगैरहमे शामिल होते है और उनसे जो निकले थे वे या तो पहलेसे बने परमाणु-कोषमे जा मिलते है या उनसे नये कोष बनते हैं। यह बात दिनरात चालू है। हमारी बाहरी आँखे इसे नहीं देखती है सही। मगर भीतरी आँखे माननेको मजबूर होती है। फिर भी यह सारी बाते कैसे हो रही है और इनकी क्या व्यवस्था है, हम नही जानते । ब्योरेकी बाते हमारी शक्तिके बाहर- की है। नही तो फिर ईश्वरकी जरूरत ही क्यो हो ? तब हमी ईश्वर नही बन जाते ? हम भीतरकी धुंधली आँखोसे इन बातोको मोटा-मोटी देखते है । क्योकि इनके बिना काम चलता नही दीखता, अक्ल रुक जाती है, आगे बढ पाती नही और कुठित हो जाती है। जो नये परमाणु पाते है वह ऊपर ही ऊपर गर्द-गुब्बारकी तरह नही चिपकते। वे तो चावलोके भीतर घुस जाते, उनमे घुस जाते, प्रविष्ट हो जाते, उनके अग-प्रत्यग बन जाते है जिस प्रकार ये बाते भौतिक पदार्थों के बारेमे उनने इस भौतिक विज्ञान-युगके आनेके बहुत पहले मान ली थी , देख ली थी, हम यह पहले ही कह भी चुके है, ठीक उसी प्रकार कर्म और आत्माके बारेमे भी उन- ने-उनकी सूक्ष्म आँखोने-~-कुछ बाते देखी, कुछ सिद्धान्त स्वीकार किये । आत्मा या आत्माके साथ ही चलनेवाले सूक्ष्म शरीरके आने-जानेके बारेमे भी उनने कुछ बाते तय की थी। गीताने “ममैवागो जीवलोके" आदि (१५१७-११) श्लोकोमे जीवात्माके आने-जाने का जो वर्णन करते हुए कहा है कि वह मन आदि इन्द्रियोको साथ लेके जाती है वह उनकी यही कल्पना है । मन आदि इन्द्रियोसे मतलब वहाँ उस सूक्ष्म शरीरसे ही है,
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३५२
दिखावट