३६२ गीता-हृदय माने जाते है। यही बात गीताने इस उत्तरायण-दक्षिणायन-विवेचनके पहले उसी अध्यायमे “सहस्रयुगपर्यन्त" (८।१७-१६) श्लोकोमे लिखी है। उसका भी इसीसे ताल्लुक सिद्ध हो जाता है। क्योकि उसीके बाद उत्तरायण आदिकी बात पाई जाती है। भीष्मकी उत्तरायणवाली प्रतीक्षा भी इसी वातको पुष्ट करती है। जव उपासना या कर्मके परिपक्व होनेमे समय सहायक है तो उत्तरायण- काल क्यो न होगा? वह तो थे उपासक । इसलिये उन्हें जाना था उसी मार्गसे। उसमे जो परिपाक होनेमे देर होती और इस तरह उनका वह उपासना रूप ज्ञान देरसे पकता, उसीकी आसानीके लिये उनने उत्तरा- यणकी प्रतीक्षा की। यह आमतौरसे देखा जाता है कि लोग रातमें ही मरते है। आम लोग वैसे ही होते है। उन्हें ज्ञानसे ताल्लुक होता ही नही। इसीलिये उनका रास्ता अँधेरेका ही होता है । दक्षिणायन कुछ ऐसा ही है भी। वहाँ धूम, रात वगैरह सभी वैसे ही है। यह ठीक है कि बडे-बडे कर्मी लोगोके वारेमे ही दक्षिणायन मार्ग लिखा है। जो ऐसे उपासक, ज्ञानी या कर्मी नही है उनके बारेमे छान्दोग्यके "अर्थतयो पथोनं" (५११०१८) में यह मार्ग नही लिखा है। लेकिन इसका इतना ही अर्थ है कि ऐसे लोग स्वर्ग या दिव्यलोकमे नही जाके बीचसे ही अपना दूसरा मार्ग पकड लेते है। क्योकि मरनेपर आखिर ये भी तो दूसरे शरीर धारण करेगे ही और उन शरीरोमे इन्हें पहुंचानेका रास्ता तो वही है । दूसरा तो सभव नहीं। यह ठीक है कि उत्तरायण और दक्षिणायन शुरुमें ही अलग होनेपर भी सम्वत्सरमें जाके फिर मिल जाते है। मगर तीसरे दलवाले जनसाधारणके मार्गको वहाँ मिलने नहीं दिया जाता। साथ ही दक्षिणायनवाले सम्वत्सर या सालके छ महीनोके बाद पितृलोकमें सीधे जाते है और इस प्रकार ऊपर जाके दो रास्ते साफ हो जाते है जैसा कि छान्दोग्य (५२१०१३) से स्पष्ट है। वैसे ही कर्मी लोगोके रास्तेसे
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